________________
106
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
नयी प्रगट होती है परन्तु जीवद्रव्य कोई नया नहीं उत्पन्न होता तथा जीव की बन्धपर्याय का अभाव होता है परन्तु कहीं जीवद्रव्य स्वयं नष्ट नहीं हो जाता। इस प्रकार द्रव्य का उत्पत्ति-विनाश नहीं है। पर्यायरूप से देखो तो आत्मा, बँधता है और आत्मा, मुक्त होता है
और द्रव्यरूप से देखो तो आत्मा, बन्ध-मोक्ष से हित एकरूप परम ज्ञायकभाव है। जीव के ऐसे मूलस्वभाव को लक्ष्य में लेने से मोक्षमार्ग-अवस्था प्रगट हो जाती है। . ..जैसे, किसी पुरुष को थोड़े दिन के लिए पैर में बेड़ी बाँधी हो, वहाँ बेड़ी के बन्धन जितना पूरा पुरुष नहीं है। यदि बन्धन जितना ही. पुरुष होवे तो बन्धनदशा का नाश होने से पुरुष का ही नाश हो जाएगा, परन्तु पूरा पुरुष बन्धदशारूप नहीं हो गया है। इसी प्रकार अनादि-अनन्त चैतन्य पुरुष आत्मा के एक अंश में जो क्षणिक बन्धभाव है, वह पूरा आत्मा नहीं है; पूरा आत्मा, अर्थात् भूतार्थरूप शुद्धआत्मा उस बन्धनरहित है।
- भाई ! तू जैसे स्वभाव से सत् है, वैसा सत्स्वभाव सन्त तुझे बतलाते हैं। जगत में तो मिथ्यात्वपोषक उल्टे-सीधे अनेक मत -मतान्तर चलते हैं। अरे! वे तो जीव का अहित करनेवाले हैं। यह तो सर्वज्ञदेव द्वारा कथित यथार्थ वस्तुस्वरूप क्या है और उसमें सत्य आत्मा कैसा है ? कि जिसे जानने से परमकल्याण होता है -- ऐसी बात है। बापू! यह तो चिन्तामणि रत्न से भी अधिक कीमती वस्तु हैं। कोई महा-भाग्यवन्त जीवों को ऐसी बात प्राप्त होती है.... और अन्तर में यह समझे, उसकी तो क्या बात! उसकी हाँ करके बहुमान करनेवाले जीव भी निहाल हो जाएँगे।
देखो, यह आत्मा का जीवनचरित्र! त्रिकाली जीवन्तस्वामी