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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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है। राग से धर्म माने, अर्थात् राग से जीवन माने, उसे सच्चा जीवन जीना नहीं आता और भगवान के सच्चे जीवन को भी वह नहीं पहचानता है।
• शुद्ध चैतन्यभावप्राणरूप जीवन, त्रिकाल है। • उसमें जड़प्राणों का अभाव, त्रिकाल है। . • खण्ड-खण्ड ज्ञानरूप अशुद्धप्राण, वह पर्याय की योग्यता है।
• चैतन्यस्वभाव के आश्रय से अखण्ड ज्ञानरूप सादि-अनन्त मुक्त जीवन प्रगट होता है।
लो, इसमें जीव और अजीव; द्रव्य और पर्याय; बन्ध और मोक्ष – यह सब आ गया। भाई! जड़इन्द्रियाँ, शरीर या भाषा तू नहीं है, वे सब तो पुद्गलपिण्ड हैं; तू उनका कारण भी नहीं है और उनके कारण से तेरा जीवन नहीं है। एक बार अत्यन्त पृथकता करके अपनी स्ववस्तु को शोध ले! जैसे, स्वर्ण को शोधनेवाला धूलधोया, धूल के ढेर में से सोना अलग निकाल कर शोध लेता है; इसी प्रकार धूल के ढेर जैसे इन शरीरादि पदार्थों से पृथक् स्वर्ण-समान तेरा शुद्धस्वरूप है, उसे तू अन्तर्दृष्टि द्वारा शोध ले।
सर्वज्ञदेव के द्वारा कथित तत्त्व, अलौकिक है... भाई! यह समझ में आये, ऐसी चीज है। ऐसा आत्मस्वभाव समझकर और उसे अनुभवगम्य करके अनन्त जीव, मोक्ष गये हैं। जिस मार्ग से अनन्त जीव मोक्ष गये हैं, उसकी ही यह बात है; इसलिए तुझसे हो सके - ऐसी बात है परन्तु इसके लिए अन्तर में स्वयं अपनी दरकार चाहिए। आत्मा की दया चाहिए कि अरे! अब इस भव -दुःख से बस होओ... अब मुझे मेरे आत्मा को इस भव-दु:ख से