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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
103.
तीन भेद पर्यायार्थिक नयाश्रित होने से अशुद्ध पारिणामिकभाव संज्ञावाले हैं।
प्रश्न : उन्हें अशुद्ध क्यों कहा?
उत्तर : शुद्धनय से संसारी जीवों को वह दस प्राणरूप जीवत्व तथा भव्यत्व, अभव्यत्व का अभाव है और सिद्धों को तो उनका सर्वथा अभाव है; इसलिए इन तीन भावों को अशुद्ध कहा है।
1.जीवत्व : पाँच इन्द्रिय, मन-वचन-काय, श्वासोच्छ्वास, और आयु - ऐसे दस भावप्राणों को धारण करके जीनेरूप जो अशुद्ध जीवत्व पारिणामिकभाव है, वह जीव का शुद्धस्वभाव नहीं. है और सिद्ध को ऐसे दस भावप्राण नहीं होते हैं। यहाँ बाहर के शरीर, इन्द्रिय इत्यादि जड़प्राण की बात नहीं है, वे तो भिन्न वस्तु है परन्तु अन्दर जीव की योग्यता में जो भावप्राण हैं, उनकी यह बात है क्योंकि यह जीव के भावों का वर्णन चल रहा है।
2. भव्यत्व : मोक्ष होने की योग्यतारूप जो भव्यत्वभाव, वह यद्यपि पारिणामिकभाव का प्रकार है परन्तु सिद्धों को साक्षात् मोक्षदशा हो गयी है; इसलिए अब 'मोक्ष होने की योग्यतारूप' भव्यत्व का व्यवहार वहाँ नहीं रहा है। चौदह मार्गणाओं में भी सिद्धों को भव्यत्व और अभव्यत्व दोनों से पार कहा है।
3. अभव्यत्व : मोक्ष होने की योग्यता न होनेरूप अभव्यत्वभाव है। शुद्ध जीव को देखनेवाली दृष्टि में ऐसे तीन प्रकार दिखाई नहीं देते हैं; एकरूप शुद्ध परमभाव ही दिखाई देता है।
वह परमभाव कैसा है ? शक्तिरूप है; सदा निरावरण है; उसमें आवरणरूप बन्धन कभी है ही नहीं; इसलिए उनसे छूटनेरूप