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________________ 102 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा +बन्धमार्ग में उदयभाव आता है। इस प्रकार पाँच भावों के बँटवारे द्वारा वस्तुस्वरूप समझ में आता है। पाँच भावों में जो भूतार्थस्वभाव है, उसको अनुसरण करके, अर्थात् उसकी सन्मुखता होकर अनुभव करने से आत्मा का सच्चा बोध होता है और सम्यग्दर्शन होता है। शास्त्र के आश्रित अथवा भेद के आश्रित, सम्यग्दर्शन नहीं है। मोक्षमार्ग, परसत्तावलम्बी नहीं; स्वसत्तावलम्बी मोक्षमार्ग है। जितने परावलम्बीभाव हैं, वे बन्ध का ही कारण हैं । स्वावलम्बीभाव ही मोक्ष का कारण है; इसीलिए आचार्यदेव ने प्रवचनसार में कहा है कि हे जीव! तेरे केवलज्ञान का साधन तुझमें ही होने पर भी, तू बाहर में सामग्री ढूँढ कर व्यग्र क्यों होता है ? बाहर की सामग्री ढूँढ़ने जाने से तुझे व्यग्रता के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। तू ही छह कारकरूप स्वयंभू है। अरे! तुझे तेरी शक्ति का विश्वास नहीं आता? विश्वास कर भाई! सर्वज्ञ और सन्तों ने स्वयं अनुभव की हुई निज शक्ति तुझे दिखलायी है। तेरा आत्मा पंगु नहीं, परन्तु परमेश्वरता से परिपूर्ण है। शुद्धपारिणामिकभाव से तो सभी जीव, एक समान हैं। द्रव्य -पर्यायरूप वस्तु में द्रव्य तो शुद्ध ध्रुव परमभावरूप है; पर्याय, बन्ध-मोक्षरूप और उत्पाद-व्ययरूप है। शुद्धद्रव्य को एकरूप देखना, वह परमपारिणामिकभाव है, वह शुद्धद्रव्यार्थिकनय का विषय है और तीन भेद डालना, वह अशुद्ध पारिणामिक है, वह पर्यायनय का विषय है। तत्त्वार्थसूत्र में पारिणामिकभाव के तीन प्रकार कहे गये हैं, वह व्यवहार है। यहाँ भी कहते हैं कि दस प्राणरूप जीवत्व तथा भव्यत्व, अभव्यत्वरूप द्वय - ये
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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