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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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बन्ध-मोक्ष से रहित है।शुद्ध पारिणामिकभाव में भव्यत्व-अभव्यत्व या अशुद्ध जीवत्व - ऐसे भेद नहीं आते हैं। तीन भेद डालना, वह अशुद्ध पारिणामिक में है; इसलिए वह व्यवहारनय का विषय है। अकेला शुद्धजीवत्वरूप परमपारिणामिकभाव, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है, उसमें बन्ध-मोक्षपर्याय नहीं आती; इसीलिए वह बन्ध-मोक्ष के परिणाम से शून्य है - ऐसा कहा है। ऐसे परमभाव को लक्ष्य में लेनेवाली, अर्थात् उस ओर झुकनेवाली पर्याय, वह मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग साधना, वह क्रिया है; द्रव्य स्वयं क्रियारूप नहीं है, अक्रिय है। बन्ध-मोक्ष की क्रिया तो पर्याय में है।
पाँच भावों का स्वरूप समझने पर उसमें यह सब आ जाता है -- बन्ध क्या? मोक्ष क्या? उसका कारण क्या? किस भाव से मोक्ष होता है ? किस भाव से बन्धन होता है ? कौन-सा भाव, अशुद्ध? कौन-सा भाव, शुद्ध? कौन-सा भाव, क्षणिक? कौन-सा भाव, त्रिकाल? कौन-से भाव, उत्पाद-व्ययरूप? कौन-सा, भाव ध्रुवरूप? किसका आश्रय छोड़ना? और किसका आश्रय करना? - इन सबका निर्णय इन पाँच भावों की पहचान में आ जाता है।
द्रव्य अपेक्षा से अक्रिय और पर्याय अपेक्षा से सक्रिय - ऐसा वस्तुस्वभाव है।
+ अक्रिय में पारिणामिकभाव आता है और सक्रिय में चार भाव आते हैं।
+ध्रुवत्व में पारिणामिकभाव आता है और उत्पाद-व्यय में चार भाव आते हैं।
+मोक्ष में क्षायिकभाव आता है और मोक्षमार्ग में उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक - ये तीन भाव आते हैं।