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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
मोक्ष होना भी उसे नहीं है । इस प्रकार वह परमभाव, बन्ध-मोक्ष से रहित है । उसे शक्तिरूप मोक्ष कहते हैं परन्तु जो बन्ध-मोक्षरूप प्रगट पर्यायें हैं, वे इस परमभाव में नहीं हैं । परमभाव तो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय है, उसमें पर्याय नहीं आती है।
अपने ऐसे परमभाव को प्रतीति में लेनेवाला जीव, भव्य ही होता है, निकट मोक्षगामी ही होता है; परन्तु मात्र भव्यत्व का भेद लक्ष्य में लेने से शुद्धजीव लक्ष्य में नहीं आता है। इसी प्रकार दस भावप्राण से जीवे, वह जीव - ऐसा लक्ष्य में लेने से भी शुद्धजीव लक्ष्य में नहीं आता है । सिद्धभगवन्त तो दस भावप्राण के बिना अकेले चैतन्यप्राण से ही सदा जी रहे हैं और सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया --- अर्थात्, शुद्धनय से समस्त जीव ऐसे शुद्धस्वरूप ही हैं । ' सर्व जीव हैं सिद्धसम, जो समझे वे होंय' - तीन प्रकार के अशुद्ध पारिणामिकभाव सिद्ध में नहीं हैं। यदि वह जीव का शुद्ध परमभाव होता तो सिद्धदशा में उसका अभाव कैसे होता ? इस प्रकार वे शुद्धस्वभाव नहीं हैं, इसलिए उन्हें अशुद्ध कहा है और पर्यायनयाश्रित कहा है ।
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परमभावरूप जो शुद्ध जीवत्व पारिणामिकभाव है, वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनयाश्रित है, अर्थात् शुद्ध द्रव्यदृष्टि उसे देखती है । अपने ऐसे परमभाव को देखने से ही जीव को सच्चा सुख और सम्यग्दर्शनादि प्रगट होते हैं ।
भाई ! तुझे दुःख मिटाकर सुखी होना है न ! तो दुःख किस भाव से है और सुख किस भाव से होता है ? उसे तू जान । सुख-दुःख तेरे अपने भावों से ही है; दूसरे के कारण नहीं। श्रीमन्तता, सुख नहीं है और दरिद्रता, दुःख नहीं है । स्वसन्मुख निर्मलभाव, सुख है.