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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 99 अध्यात्मदृष्टि में शुद्धद्रव्य, वह निश्चय है और उसकी शुद्धपर्याय द्वारा मोक्षमार्ग को साधना, वह व्यवहार है। रागादिक तो परमार्थ से अनात्मा है। वे शुद्ध आत्मा नहीं; अशुद्ध आत्मा है, अर्थात् शुद्धदृष्टि में वह अनात्मा है। अभेद आत्मा की शुद्ध अनुभूति में उनका अभाव है। शुद्धजीव, वह अन्त:तत्त्व है और रागादि, वंह बाह्यतत्त्व है और अभेदतत्त्व की अनुभूति में निर्मलपर्याय के भेद भी नहीं हैं, इस अपेक्षा से उन्हें भी बाह्यतत्त्व कहा है। नियमसार गाथा 38 में जीवादि तत्त्वों को बाह्यतत्त्व कहा है और शुद्धआत्मा को ही अन्त:तत्त्व कहा है, अर्थात् जीवादि तत्त्वों के भेद सम्बन्धी जो विकल्प हैं, उनके द्वारा शुद्धआत्मा अनुभव में नहीं आता; इसलिए उन्हें बाह्यतत्त्व कहकर हेय कहा है। पर्याय के भेद हैं, वे आदरणीय नहीं हैं, आश्रय करने योग्य नहीं हैं; ज्ञायकमूर्ति त्रिकाली तत्त्व में अभेद होकर अनुभव करने योग्य हैं। अनुभव स्वयं पर्याय है परन्तु वह द्रव्यस्वभाव के सन्मुख होकर उसका आश्रय करती है; इस प्रकार शाश्वत् वस्तु और उसकी वर्तमान अवस्था -- ये दोनों परस्पर सापेक्षरूप से परिपूर्ण आत्मा को प्रसिद्ध करती है। त्रिकाली वस्तु की प्रसिद्धि तो वर्तमान पर्याय द्वारा होती है; पर्याय अन्तर्मुख हुई, तब जाना कि अहो ! मैं तो ऐसा त्रिकाल ज्ञायकभाव हूँ। ... प्रत्येक जीव स्वयं ऐसे स्वभाववाला है। आत्मा के ऐसे स्वभाव का अभ्यास करने योग्य है। हे जीव! तेरे पास तो इतना क्षयोपशम है; तत्त्व समझनेयोग्य क्षयोपशम तो संज्ञी जीवों को बहुतों को होता है परन्तु जीव स्वयं उसमें उपयोग नहीं जोड़े और अन्यत्र उपयोग भ्रमाये तो यह उसका दोष है। विवाह या व्यापार इत्यादि पाप के भेद होकर अनुभवत वह द्रव्यस्वभाव वस्तु और
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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