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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
द्रव्य और पर्याय परस्पर सापेक्ष है - ऐसी आत्मवस्तु है । यद्यपि जगत् की समस्त वस्तुएँ द्रव्य - पर्यायरूप है परन्तु यहाँ आत्मवस्तु का वर्णन है । ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा कैसा है ? वह यहाँ
बतलाना है ।
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द्रव्य के बिना पर्याय नहीं और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं; परस्पर सापेक्ष - ऐसी द्रव्य - पर्यायरूप दोनों होकर पूर्ण चीज है । द्रव्य और पर्याय, ये अंश एक-दूसरे से 'कथञ्चित् भिन्न' होने का कहेंगे, परन्तु वस्तु तो दोनों अंश होकर पूरी है। सहजस्वभाव कहो या पारिणामिकभाव कहो, वह त्रिकाल द्रव्य है; उस स्वभाव की पहचान और एकाग्रतारूप पर्याय औपशमिक - क्षयोपशमिक या क्षायिकभाव है; रागादि विकारीभाव, वह औदयिकभाव है । धर्म के प्रारम्भ का भाव, वह उपशमभाव है, वह अल्प काल ही रहता है; तत्पश्चात् तुरन्त क्षयोपशम होता है और क्षयोपशमपूर्वक क्षायिक होता है । क्षायिकभाव प्रगट होने के बाद सदा काल ऐसा का ऐसा रहता है। उदयभाव मिट जाता है; क्षायिकभाव होने पर उपशम या क्षयोपशमभाव भी नहीं रहता; पारिणामिकपरमभाव तो सदा ही ऐसा का ऐसा है । द्रव्यरूप और पर्यायरूप, ये दोनों भाव, वस्तु में एक साथ हैं- ऐसी वस्तु को देखने के तीन प्रकार हैं ।
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त्रिकाल कायमरूप भाव को देखनेवाली दृष्टि, वह द्रव्यार्थिकनय,
वस्तु को पर्यायरूप देखनेवाली दृष्टि, वह पर्यायार्थिकनय
और,
- द्रव्य - पर्याय को एक साथ देखना, वह प्रमाणरूप ज्ञान ।