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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 97 यथार्थ वस्तुस्थिति है, वह सर्वज्ञदेव ने जानी है और अनुभव में आने योग्य है। अज्ञानी जीव, आत्मा के अनुभव की बातें करे, परन्तु त्रिकाली आत्मा क्या, उसकी पर्याय क्या, उसमें विकार क्या और निर्मलता कैसे हो? अनुभव कौन-सा भाव है ? इन समस्त प्रकारों की समझ बिना आत्मा का सच्चा अनुभव नहीं होता। अनुभव, वह अनन्त काल में नहीं प्रगट हुई - ऐसी अपूर्वदशा है, और द्रव्यस्वभाव त्रिकाल है - ऐसी द्रव्य--पर्यायरूप वस्तु के ज्ञानपूर्वक सच्चा आत्म-अनुभव होता है और मोक्षमार्ग प्रगट होता है। त्रिकालभाव और क्षणिकभाव, इन दोनों स्वभाववाली वस्तु है। आत्मा के जो पाँच भाव हैं, उनमें से चार भाव, पर्यायरूप हैं और पारिणामिक परमभाव, द्रव्यरूप है। यद्यपि क्षायिकभाव प्रगट होने के बाद अनन्त काल सदा ऐसा का ऐसा हुआ करता है, तथापि वह पर्यायरूप है। वस्तु ही द्रव्य--पर्यायरूप है। अपनी आत्मवस्तु को देखने के लिए दृष्टि कहाँ जाती है? अपने अन्तर में दृष्टि जाती है, इतने में ही आत्मा है; बाहर नहीं। अन्तर्मुख अवलोकन द्वारा आत्मा का अनुभव होता है। उपजे मोह विकल्प से समस्त यह संसार; अन्तर्मुख अवलोकते विलय होत नहीं वार। (श्रीमद् राजचन्द्र) अन्तर्मुख अवलोकन, वह पर्याय है; मोह विकल्परूप अधर्मदशा, वह भी आत्मा की पर्याय में थी, वह उदयभावरूप थी और अधर्मदशा मिटकर धर्मदशा प्रगट हुई, वह उपशमादिभावरूप है। पारिणामिकभावरूप द्रव्य, त्रिकाल है; इसमें पाँचों भाव आ गये। पाँच भावरूप वस्तु की सिद्धि, सर्वज्ञ के शासन में ही है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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