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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
ऐसा कहा जाता है परन्तु जब द्रव्यदृष्टि से एकरूप द्रव्य को ही देखा जाए, तब तो उसमें उत्पाद-व्यय अथवा कारण-कार्य कहीं नहीं है; निरपेक्षसत् एकरूप परमभाव ही दिखता है। ऐसे स्वभाव
का निर्णय करनेवाला ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान है। .. भाई! तेरे ज्ञान को बाहर भ्रमाकर उसमें तू जगत की नौंध रखता है कि इस देश में ऐसा हुआ और अमुक राजा आया....परन्तु यह तो सब व्यर्थ है। आत्मा के इस स्वभाव की बात ज्ञान की नौंध में भलीभाँति नौंध कर लेने जैसी है। इस स्वभाव को ज्ञान के लक्ष्य में लेने से अपूर्व लाभ है। ___ भाई! तेरा आत्मा, ज्ञानस्वरूप है, उसमें पर का तो कर्तृत्व -भोक्तृत्व नहीं है; राग का भी कर्तृत्व भोक्तृत्व नहीं है; और
द्रव्यदृष्टि से देखने से निर्मलपर्याय के कर्ता-कर्म का भेद भी .. तुझमें नहीं है। त्रिकाल सत्द्रव्य में होनापना नहीं है। होनापना,
अर्थात् कार्यपना पर्याय में होता है, द्रव्य में नहीं होता। बन्ध और मोक्ष ये दोनों परिणाम नये होते हैं; द्रव्य पूरा नया नहीं होता - ऐसे स्वभाव को लक्ष्य में लेने से निर्विकल्प अनुभव होकर ज्ञानचक्षु खुलते हैं। ऐसा अनुभव, परभावों से रहित है; इसलिए वह शून्य का अनुभव कहलाता है परन्तु उस अनुभव में सर्वथा शून्य नहीं है, निजभाव से तो वह भरपूर है। स्वभाव के वेदन में ज्ञान-आनन्दादि अनन्त गुणों का सद्भाव और रागादि समस्त परभावों का अभाव - ऐसा अनेकान्तपना है।
सत् की क्रिया अथवा धर्म की क्रिया कैसे होती है और किसमें होती है ? यह उसकी बात है। क्रिया, परिणमनरूप है; कूटस्थरूप नहीं है। कूटस्थरूप ध्रुवस्वभाव को लक्ष्य में लेने से