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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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नहीं है। उत्कृष्ट बात है तो उसे समझने के लिए प्रयत्न भी उत्कृष्ट, अर्थात् अपूर्व ही होगा। ___ भाई! आत्मा के स्वघर में भरा हुआ वैभव, सन्त तुझे बतलाते हैं। तेरे अपने घर में जो चीज है, उसकी यह बात है। अपने स्वघर में आए बिना, उसमें कैसा वैभव भरा है? – इसका पता कैसे लगेगा।
हम तो कबहुं न निज घर आये.... परपद निजपद मान मगन हैं, परपरिणति लिपटाये, शुद्ध बुद्ध सुखकन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये...
हम तो....... निजघर को भूलकर, अर्थात् अपने चैतन्यस्वभाव को भूलकर, परघर में, अर्थात् रागादि परभाव में अनन्त काल से जीव भटका है; पर-पद को निज-पद मान लिया है - यह बड़ी भूल हुई। उसे अब स्वघर का वैभव बतलाकर स्वघर में प्रवेश करने की विधि सन्त बतलाते हैं। अहो! यह तो इन्द्र और गणधर आदर करें - ऐसे अपूर्व धर्म की बात है।
आत्मा, अर्थात् चैतन्यसत्ता, उसका जो अनादि अनन्त परमभाव है, उसमें कोई हेतु नहीं है; वह अहेतु है। हेतु तो कोई नया कार्य हो, उसमें होता है, अर्थात् पर्याय में होता है; द्रव्य में नहीं होता। वर्तमान पर्याय में जो काय होता है, उसमें पूर्व पर्याय को भी हेतु कहा जाता है, अभेदरूप द्रव्य-गुण को भी हेतु कहा जाता है। पूर्व पर्याय में वर्तता द्रव्य, वह उत्तरपर्याय का हेतु है - ऐसा कार्तिकेयानुप्रेक्षा में वर्णन किया है। जब पर्याय की बात हो, तब