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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
बन्ध-मोक्षरूप क्रिया दिखायी नहीं देती । मोक्ष की शुद्धदशा या उसके कारणरूप मोक्षमार्ग तथा रागादि अशुद्धभाव या कर्म का सम्बन्ध, ये चारों प्रकार पर्याय में हैं । पर्याय के ऐसे प्रकारों का यथार्थ स्वरूप भी जैन सिद्धान्त के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं है और द्रव्यदृष्टि से एकरूप द्रव्य है, वह भी जैन सिद्धान्त के अतिरिक्त अन्य किसी में यथार्थ नहीं कहा गया है । यह तो सर्वज्ञ परमात्मा का अलौकिकमार्ग है ।
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शून्य कहने से वस्तु का ही सर्वथा अभाव मान लें तो वह बड़ी भूल है । शून्य का अर्थ कहीं सर्वथा अभाव नहीं है परन्तु स्वभाव की अस्ति में परभाव की जो नास्ति है, उसका नाम शून्य है अथवा अभेदद्रव्य को देखनेवाली दृष्टि में पर्यायरूप परिणामों के भेद दिखायी नहीं देते; इसलिए उसमें परिणाम से शून्यता कही है परन्तु उस समय स्वभावसन्मुख ढला हुआ जो भाव है, वह स्वयं तो ज्ञान -- आनन्द से भरपूर है, वह कहीं अभावरूप नहीं है। चैतन्यस्वभाव का निर्णय और अनुभव करनेवाला जो श्रद्धा - ज्ञान - रमणतारूप परिणाम है, वह जीव की अवस्था है, वह मोक्षमार्ग है; वह पुण्य - पाप से रहित है और पर्यायनय का विषय है । उस परिणाम का अस्तित्व पर्यायरूप से है, द्रव्यरूप से नहीं । सत् कहने से उसमें द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों आ जाते हैं।
सत्रूप आत्मा में द्रव्यरूप पारिणामिकभाव है और पर्यायरूप औपशमिकादि चार भाव हैं । अनादि से संसार में भटकता हुआ जीव, जब सर्व प्रथम आत्मधर्म प्राप्त करता है, तब उपशान्तरस के अनुभवसहित प्राप्त करता है । शान्ति का समुद्र जो आत्मा, उसमें उपशमरस की धारा बहती है