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सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ
हैं, उसी प्रकार होती हैं। जिसे ऐसी प्रतीति हो जाती है, उसे क्रमबद्ध पर्याय की और सर्वज्ञशक्ति की प्रतीति हो जाती है और वह आत्मज्ञ हो जाता है; आत्मज्ञ जीव, सर्वज्ञ अवश्य होता है।
वस्तु के प्रत्येक गुण की पर्याय प्रवाहबद्ध चलती ही रहती है। एक ओर सर्वज्ञ का केवलज्ञान परिणमित हो रहा है, दूसरी ओर जगत के सर्वद्रव्यों की पर्याय अपने-अपने में क्रमबद्ध परिणमित हो रही है। अरे! इसमें एक-दूसरे का क्या कर सकता है ? समस्त द्रव्य अपने आप में ही परिणमित हो रहे हैं। बस! ऐसी प्रतीति करने पर ज्ञान पर के कर्तृत्व से अलग ही रह गया; सब के प्रति राग-द्वेष उड़ गया और मात्र ज्ञान रह गया, यही धर्म है।
परमार्थ से निमित्त के बिना ही कार्य होता है। विकाररूप में या शुद्धरूप में जीव स्वयं ही निजपर्याय से परिणमित होता है और उस परिणमन में निमित्त की तो नास्ति है। कर्म और आत्मा का सम्मिलित परिणमन होकर विकार नहीं होता। एक वस्तु के परिणमन के समय परवस्तु की उपस्थिति हो तो इससे क्या? परवस्तु का और निज वस्तु का परिणमन बिल्कुल भिन्न ही है; इसलिए जीव की पर्याय निमित्त के बिना अपने आप से ही होती है, निमित्त कहीं जीव की राग-द्वेषादि पर्याय में घुस नहीं जाता; इसलिए निमित्त के बिना ही राग-द्वेष होता है। निमित्त की उपस्थिति होती है, वह तो ज्ञान करने के लिए है; ज्ञान की सामर्थ्य होने से जीव, निमित्त को जानता भी है, परन्तु निमित्त के कारण उपादान में कुछ भी नहीं होता। उपादान की क्रिया में निमित्त का अभाव है।