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वस्तुविज्ञानसार
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आत्मा के पुरुषार्थ की प्रतीति है या नहीं? में अपने स्वभाव के पुरुषार्थ से केवलज्ञान प्रगट करता हूँ और जब अपनी केवलज्ञान दशा प्रगट करता हूँ, तब घातियाकर्म रहते ही नहीं - ऐसा नियम है। जिसे उपादान की श्रद्धा हो, उसे निमित्त की शङ्का नहीं होती
और जो निमित्त की शङ्का में अटक गया है, उसने उपादान का पुरुषार्थ ही नहीं किया। उपादान, निश्चय है और निमित्त, व्यवहार है, दोनों की सन्धि है।
निश्चयनय सम्पूर्ण द्रव्य को लक्ष्य में लेता है। सम्पूर्ण द्रव्य की श्रद्धा में केवलज्ञान से कम की स्वीकृति ही कहाँ है ? क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में द्रव्य की श्रद्धा है और द्रव्य की श्रद्धा में केवलज्ञान की प्रतीति है; इसलिए क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा का फल केवलज्ञान ही है।
निश्चय से तो केवलज्ञानी सम्पूर्ण आत्मज्ञ है; व्यवहार से सर्वज्ञ है। सम्पूर्ण आत्मज्ञ होकर सबके जानने से सर्वज्ञ कहलाते हैं आत्मज्ञता के बिना सर्वज्ञता हो ही नहीं सकती।
सर्वज्ञ सभी वस्तुओं की पर्यायों के क्रम को जानते हैं, इसलिए जो साधक यह प्रतीति में लाता है कि सभी वस्तुओं की क्रमबद्धपर्याय है' वह जीव सर्वज्ञता को स्वीकार करता है और जो सर्वज्ञता को स्वीकार करता है, वह आत्मज्ञ ही है क्योंकि सर्वज्ञता कभी भी आत्मज्ञता के बिना नहीं होती। जो जीव, वस्तु की सम्पूर्ण क्रमबद्धपर्यायों को नहीं मानता, वह सर्वज्ञता को नहीं मानता और जो सर्वज्ञता को नहीं मानता, वह आत्मज्ञ नहीं हो सकता।
आत्मा की सम्पूर्ण ज्ञानशक्ति में सभी वस्तुओं की तीनों काल की पर्यायें जैसी होनी होती हैं, वैसी ही ज्ञात होती हैं और जैसी ज्ञात