SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 . सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ है। जब जीव, स्वसन्मुख परिणमित होता है, तब भले ही कर्म उदय में हो, किन्तु जीव के उस समय के शुद्धपरिणमन में कर्म के निमित्त की नास्ति है। स्वयं अपने में एकमेक हुआ और कर्म की ओर नहीं गया, यही कर्म की नास्ति अर्थात् उदय का अभाव है। आत्मा में एक समय की स्वसन्मुखदशा में पाँचों समवाय आ जाते हैं। जीव जब पुरुषार्थ करता है, तब उसके पाँचों ही समवाय एक ही समय में होते हैं। स्व की प्रतीति में पर की प्रतीति आ ही जाती है। ऐसे वस्तुस्वरूप की प्रतीति में केवलज्ञान-सन्मुख का पुरुषार्थ आ गया है। प्रश्न - जीव, केवलज्ञान को प्रगट करने का पुरुषार्थ करे किन्तु उस समय कर्म की क्रमबद्ध अवस्था अधिक समय तक रहनी हो तो जीव को केवलज्ञान कैसे प्रगट होगा? उत्तर - अरे, तेरी शङ्का बड़ी विपरीत है ! तुझे अपने पुरुषार्थ का ही विश्वास नहीं है; इसलिए तेरी दृष्टि कर्म की ओर ढली हुई है। जो ऐसी शङ्का करता है कि 'सूर्य का उदय होगा और फिर भी यदि अन्धकार नष्ट नहीं हुआ तो?' वह मूर्ख है। इसी प्रकार 'मैं मोक्ष का पुरुषार्थ करूँ और कर्म की स्थिति अधिक समय तक रहनी हो तो?' जो ऐसी शङ्का करता है, उसे पुरुषार्थ की प्रतीति नहीं है, वह मिथ्यादृष्टि है। - कर्म की क्रमबद्धपर्याय ऐसी ही है कि जब जीव पुरुषार्थ करता है, तब वह स्वयं ही दूर हो जाती है। कर्म अधिक काल तक रहना हो तो?' यह दृष्टि तो पर की ओर प्रलम्बित हुई है और ऐसी शङ्का करनेवाले ने अपने पुरुषार्थ को पराधीन माना है। तुझे अपने
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy