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________________ वस्तुविज्ञानसार .37 समय जो दशा प्रगट हुई, वही पर्याय उसकी नियति है। पुरुषार्थ करनेवाले जीव के स्वभाव में जो नियति है, वही प्रगट होती है, बाहर से नहीं आती। 4. स्वदृष्टि के पुरुषार्थ के समय जो दशा प्रगट हुई, वही उस वस्तु का स्वकाल है। पहले पर की ओर झुकता था, उसकी जगह स्वोन्मुख हुआ, यही स्वकाल है। 5. जब स्वभावदृष्टि से यह चार समवाय प्रगट हुए, तब निमित्तरूप कर्म उसकी अपनी योग्यता से स्वयं हट गये, यह कर्म है। इसमें पुरुषार्थ, स्वभाव, नियति और काल यह चार समवाय अस्तिरूप हैं अर्थात् वे चारों उपादान की पर्याय से सम्बद्ध हैं और पाँचवाँ समवाय नास्तिरूप है, वह निमित्त से सम्बद्ध है। यदि पाँचवाँ समवाय आत्मा में लागू करना हो तो वह इस प्रकार है कि परोन्मुखता से हटकर, स्वभाव की ओर झुकने पर, प्रथम चारों का अस्तिरूप में और कर्म का नास्तिरूप में; इस प्रकार आत्मा में पाँचों समवायों का परिणमन हो गया है अर्थात् स्वसन्मुख पुरुषार्थ में पाँचों समवाय अपनी पर्याय में समाविष्ट हो जाते हैं। - जब जीव ने सम्यक् पुरुषार्थ नहीं किया, तब विकारीभाव के लिए कर्म निमित्त कहलाया और जब सम्यक् पुरुषार्थ किया, तब कर्म का अभाव निमित्त कहलाया। जीव अपने में पुरुषार्थ के द्वारा चार समवायों को प्रगट करे और प्रस्तुत कर्म की दशा बदलनी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। जब जीव निजलक्ष्य करके चार समवायरूप परिणमित होता है और कर्म की ओर लक्ष्य करके परिणमित नहीं होता अर्थात् उदय में युक्त नहीं होता, तब कर्म की निर्जरा हो जाती
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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