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________________ 26 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ प्रश्न - शास्त्र में तो यह कहा है कि कर्म की उदीरणा होती है? उत्तर - उदीरणा का अर्थ यह नहीं है कि बाद में होनेवाली अवस्था को उदीरणा करके जल्दी लाया गया हो; परमाणु की क्रमबद्ध अवस्था ही उस तरह की है। जीव ने अपने में पुरुषार्थ किया - यह बताने के लिए उपचार से ऐसा कहा है कि कर्म में उदीरणा हुई है। उदीरणा में भी कर्म की अवस्था का क्रम बदल नहीं गया है। जहाँ यह कहा जाता है कि जीव अधिक पुरुषार्थ करे तो अधिक कर्म खिर जाते हैं, वहाँ भी वास्तव में जीव ने कर्मों को खिराने का पुरुषार्थ नहीं किया है, किन्तु अपने स्वभाव में रहने का पुरुषार्थ किया है। जीव के विशेष पुरुषार्थ का ज्ञान कराने के लिए उपचार से ऐसा कहा जाता है कि बहुत समय के कर्मपरमाणुओं को अल्पकाल में ही नष्ट कर दिया है। इस आरोपित कथन में यथार्थ वस्तुस्वरूप तो यह है कि जीव ने स्वभाव में रहने का पुरुषार्थ किया और उस समय जिन कर्मों की अवस्था स्वयं खिरनेरूप थी, वे कर्म खिर गये। परमाणु की अवस्था के क्रम में भङ्ग नहीं पड़ता। बहुत काल के कर्म क्षणभर में नष्ट कर दिये' - इस कथन का तात्पर्य इतना ही समझना चाहिए कि जीव ने अपनी पर्याय में बहुत-सा पुरुषार्थ किया है। छहों द्रव्य परिणमनस्वभावी हैं और वे अपनी-अपनी क्रमबद्धपर्याय में परिणमित होते हैं। छहों द्रव्य पर की सहायता के बिना स्वयं परिणमित होते हैं, यह श्रद्धा करने में ही पर के अकर्तृत्व का अनन्त पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के बिना जीव की एक भी पर्याय नहीं
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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