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________________ वस्तुविज्ञानसार होती । अज्ञानी पुरुषार्थ की सन्मुखता अपनी ओर करने के बदले पर की ओर करता है । यदि वह स्वभाव की रुचि करे तो स्वभाव की ओर ढले और पर्याय क्रमशः शुद्ध होती जाए। 27 इस बात की समझ में आत्मा के मोक्ष का उपाय निहित है; इसलिए इस बात को बहुत विश्लेषण करके समझना चाहिए, सर्वज्ञ के निर्णयपूर्वक स्पष्ट करके जानना चाहिए। परम सत् को ढँकना नहीं चाहिए, किन्तु ऊहापोह करके बराबर निश्चय करना चाहिए । सत्य में किसी की लज्जा नहीं होती, यह तो वस्तुस्वरूप है । सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा अपने सम्यग्ज्ञान से यह जानता है कि सर्वज्ञ भगवान ने अपने ज्ञान में जो जाना है, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु क्रमबद्ध परिणमित होती है। दूसरा उसका कर्ता नहीं है। मेरी केवलज्ञान पर्याय, मेरे स्वद्रव्य में से ही प्रगट होगी ऐसी सम्यक् भावना से उसका ज्ञान, स्वसन्मुख होकर स्वभाव में एकाग्र होता है और ज्ञाताशक्ति प्रति पर्याय में निर्मल होती जाती है तथा विकारीपर्याय क्रमशः दूर होती जाती है। कौन कहता है कि इसमें पुरुषार्थ नहीं है ? जो ऐसे स्वभाव में निःशङ्क है, वह सम्यग्दृष्टि है और इस स्वभाव में जो तनिक भी सन्देह का वेदन करता है, वह मिथ्यादृष्टि है, उसे सर्वज्ञ के ज्ञान की और अपने ज्ञातास्वभाव की श्रद्धा नहीं है । — अहो ! इस सम्यग्दृष्टि जीव की भावना तो देखो ! वह स्वभाव के आश्रय से ही साधकदशा का प्रारम्भ करता है और स्वभाव में ही लाकर पूर्ण करता है । केवलज्ञान सम्पूर्णतया निज में ही समाविष्ट हो जाता है। साधक धर्मात्मा अपने में ही समाविष्ट होना चाहता है । उसने बाहर से न तो कहीं से प्रारम्भ किया है और न बाह्य में कहीं
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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