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________________ वस्तुविज्ञानसार 25 . प्रश्न - कर्म यदि परमाणु की क्रमबद्धपर्याय ही है तो फिर जैनों में तो कर्मसिद्धान्त के विपुल शास्त्र भरे पड़े हैं, उनके सम्बन्ध में क्या समझा जाए? उत्तर- हे भाई! यह सभी शास्त्र आत्मा के परिणाम को ही बतानेवाले हैं। कर्म का जितना वर्णन है, उसका आत्मा के परिणाम के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। आत्मा के परिणाम किस -किस प्रकार के होते हैं, यह समझाने के लिए उपचार से कर्म में भेद करके समझाया है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का ज्ञान कराने के लिए कर्म का वर्णन किया है किन्तु जड़कर्म के साथ आत्मा का कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। प्रश्न - बन्ध, उदय, उदीरणा, उपशम, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, सत्ता, निद्धत्त और निकाचित – ऐसे दश प्रकार के करण (कर्म की अवस्था के प्रकार) क्यों कहे गये हैं? । उत्तर- इसमें भी वास्तव में तो चैतन्य की ही पहचान करायी गयी है। कर्म के जो दश प्रकार बताये हैं, वे आत्मा के परिणामों के प्रकार बताने के लिए ही हैं। आत्मा का पुरुषार्थ वैसे दश प्रकार से हो सकता है - यह बताने के लिए कर्म के भेद करके समझाया है। आत्मा के पुरुषार्थ के अनुरूप परमाणु भी उसकी योग्यता से स्वयं परिणमन करते हैं, इसमें दोनों के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का ज्ञान कराया है, परन्तु यह बात नहीं है कि कर्म, आत्मा का कुछ करते हैं। कर्म का प्रत्येक परमाणु भी द्रव्य है, वह द्रव्य अपनी तीन काल की पर्यायरूप से स्वयं परिणमन करता है।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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