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सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ
-अशुद्ध पर्याय का आधार है। कोई जीव शुभभाव करने से परवस्तु . (देव, शास्त्र, गुरु अथवा मन्दिर इत्यादि) को प्राप्त नहीं कर सकता
और अशुभभाव करने से (कोई रुपया-पैसा इत्यादि) परवस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता। जो परवस्तु, जिस काल में और जिस क्षेत्र में आनी होती है, वही वस्तु उस काल और उस क्षेत्र में स्वयं आ जाती है, वह आत्मा के भाव के कारण नहीं आती।
. वस्तु की समस्त पर्यायें अपने क्रमबद्ध नियमानुसार ही होती है, उनमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस समझ में वस्तु की प्रतीति और ज्ञानस्वभाव की सन्मुखतारूप वीर्य प्रगट होता है। इसे मानने पर जीव अनन्त परद्रव्यों के कर्तृत्व को छेदकर मात्र ज्ञाता हो जाता है। इसमें सम्यग्दर्शन का ऐसा अपूर्व पुरुषार्थ भरा हुआ है कि जैसा अनन्त काल में कभी भी नहीं किया था। ___जैसे आत्मा अपनी क्रमबद्धपर्यायरूप होता है, उसी प्रकार जड़ भी अपनी-अपनी क्रमबद्धपर्यायरूप होता है। कर्म की जो-जो अवस्था होती है, उसे आत्मा नहीं करता, किन्तु वे परमाणु ही उस पर्यायरूप होते हैं। कर्म के परमाणुओं में उदय, उदीरणा इत्यादि जो दश अवस्थाएँ (करण) हैं, वे भी परमाणु की क्रमबद्धदशा है। आत्मा के शुभपरिणाम के कारण कर्म के परमाणुओं की दशा बदल नहीं गयी है, किन्तु उन परमाणुओं में ही उस समय वह दशा होने की योग्यता थी; इसलिए वह दशा हुई है। जीव अपनी दशा में पुरुषार्थ करता है और उस समय कर्म के परमाणुओं की क्रमबद्धदशा उपशम, उदीरणादिरूप स्वयं होती है। परमाणु में उसकी अवस्था उसकी योग्यता से, उसके कारण से होती है किन्तु आत्मा उसका कुछ नहीं करता।