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________________ 16 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ हे भाई! यह (क्रमबद्धपर्याय) नियतवाद नहीं है, अपितु अपने ज्ञान का व समस्त पदार्थों के नियति (क्रमबद्ध अवस्थाओं) का निर्णय करनेवाला पुरुषार्थवाद है। जब कि समस्त पदार्थों की अवस्था क्रमबद्ध होती है तो मैं उसके लिए क्या करूँ? मैं किसी की अवस्था का क्रम बदलने के लिए समर्थ नहीं हूँ। मेरी क्रमबद्ध अवस्था मेरे द्रव्यस्वभाव में से प्रगट होती है, इसलिए मैं अपने द्रव्यस्वभाव में एकाग्र रहकर सबका ज्ञाता ही हूँ - ऐसी स्वभावदृष्टि (द्रव्यदृष्टि) में अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है। प्रश्न – जब सभी क्रमबद्ध हैं और उसमें जीव कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकता तो फिर जीव का पुरुषार्थ परिमित हो गया? उत्तर - नहीं; सब कुछ क्रमबद्ध है, मैं उसका अकर्ता हूँ, . ज्ञाता हूँ, कर्ता नहीं - इस निर्णय में ही जीव का अनन्त पुरुषार्थ समाविष्ट है, किन्तु उसमें कोई परिवर्तन करना आत्मा के पुरुषार्थ का कार्य नहीं है। जैसे भगवान जगत का सबकुछ मात्र जानते ही हैं, किन्तु वे भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकते, तब क्या इससे भगवान का पुरुषार्थ परिमित हो गया? नहीं; भगवान का अनन्त अपरिमित पुरुषार्थ अपने ज्ञान में समाविष्ट है। भगवान का पुरुषार्थ निज में है, पर में नहीं। पुरुषार्थ, जीव द्रव्य की पर्याय है; इसलिए उसका कार्य जीव की ही पर्याय में होता है किन्तु जीव के पुरुषार्थ का कार्य पर में नहीं होता। जो यह मानता है कि सम्यग्दर्शन और केवलज्ञानदशा, आत्मा के पुरुषार्थ के बिना होती है, वह मिथ्यादृष्टि है। ज्ञानी प्रतिक्षण स्वभाव की पूर्णता के पुरुषार्थ की भावना करता है। अहो! जिनको
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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