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________________ 'वस्तुविज्ञानसार पूर्ण ज्ञायकस्वभाव प्रगट हो गया है, वे केवलज्ञानी हैं; उनके ज्ञान में सबकुछ एक ही साथ ज्ञात होता है - ऐसी प्रतीति करने पर स्वयं भी स्वसन्मुखदृष्टि से ज्ञानभावरूप परिणमन करने लगा । ज्ञान के अतिरिक्त पर का कर्त्तत्व अथवा रागादिक, सबकुछ अभिप्राय में से दूर हो गया । ज्ञानी इस ज्ञानदृष्टि के बल से और ज्ञान की पूर्णता की भावना से वस्तुस्वरूप का चिन्तवन करता है । यह भावना ज्ञानी की है, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि की नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव पर का कर्त्तत्व मानता और पर - कर्त्तत्व की मान्यतावाला जीव ज्ञातृत्व की यथार्थ भावना नहीं कर सकता क्योंकि कर्तृत्व और ज्ञातृत्व मे परस्पर विरोध है । 17 'सर्वज्ञ भगवान ने अपने केवलज्ञान में जो देखा है, वही होता है । यदि हम उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकते - तो फिर उसमें पुरुषार्थ नहीं रहता, 'इस प्रकार जो मानते हैं, वे अज्ञानी हैं । हे भाई! तू किसके ज्ञान से बात करता है? अपने ज्ञान से या दूसरे के ज्ञान से ? यदि तू अपने ज्ञान से ही बात करता है तो फिर जिस ज्ञान ने सर्वज्ञ का और सभी द्रव्यों की अवस्था का निर्णय कर लिया, उस ज्ञान में स्वद्रव्य का निर्णय न हो यह हो ही कैसे सकता है ? स्वद्रव्य का निर्णय करनेवाले ज्ञान में अनन्त पुरुषार्थ है । तूने अपने तर्क में कहा है कि 'सर्वज्ञ भगवान ने अपने केवलज्ञान में जैसा देखा हो वैसा होता है' तो वह मात्र बात करने के लिए कहा है अथवा तुझे सर्वज्ञ के केवलज्ञान का निर्णय है ? पहले तो यदि तुझे केवलज्ञान का निर्णय न हो तो सर्वप्रथम वह निर्णय कर और यदि तू सर्वज्ञ के निर्णयपूर्वक यह कहता हो तो सर्वज्ञ भगवान के केवलज्ञान
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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