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वस्तुविज्ञानसार
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ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेगा, क्योंकि यह निश्चय किया हुआ है कि सबकुछ क्रमबद्ध ही होता है; इसलिए वह अब ज्ञाताभाव से जानता ही है। ज्ञान की एकाग्रता की कमी के कारण वर्तमान में कुछ अपूर्ण जानता है और अल्प राग-द्वेष भी होता है, परन्तु 'मैं तो ज्ञान ही हूँ' - ऐसी श्रद्धा के बल से पुरुषार्थ की पूर्णता करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेगा; इसलिए मैं तो ज्ञातास्वरूप हूँ, परपदार्थों की क्रिया स्वतन्त्र होती है, उसका कर्ता मैं नहीं हूँ, मैं तो ज्ञाता ही हूँ,' इस प्रकार की यथार्थ श्रद्धा ही केवलज्ञान को प्रगट करने का एकमात्र अपूर्व और अफर (अप्रतिहत) उपाय है। __वस्तु में जो कुछ हुआ, होता है और होगा; वह सब केवली भगवान जानते हैं और जो कुछ केवली भगवान ने जाना है, वह सब वस्तु में होता है; इस प्रकार ज्ञेय और ज्ञायक का परस्पर मेल/ सम्बन्ध है। यदि ज्ञेय-ज्ञायक का मेल नहीं माने और किञ्चित्मात्र भी कर्ता-कर्मपना माने तो वह जीव मिथ्यादृष्टि है। - केवलज्ञानी सम्पूर्ण ज्ञायक हैं, उनको किसी भी पदार्थ के प्रति कर्त्तत्व या राग-द्वेषभाव नहीं होता। सम्यग्दृष्टि के भी ऐसी श्रद्धा होती है कि केवलज्ञानी की तरह मैं भी ज्ञाता ही हूँ। मैं किसी भी वस्तु का कुछ नहीं कर सकता तथा किसी वस्तु के कारण मुझमें कुछ परिवर्तन नहीं होता। यदि अस्थिरता से राग हो जाए तो वह मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार श्रद्धा की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि भी ज्ञायक ही है। जिसने यह माना कि नियमपूर्वक वस्तु की क्रमबद्ध दशा होती है, मैं उसका ज्ञाता हूँ; वह वस्तुस्वरूप का ज्ञाता हुआ।