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________________ सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ इस क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा के भाव सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान का अवलम्बन करनेवाले हैं; यह भाव तीन काल और तीन लोक में बदलनेवाले नहीं हैं। यदि सर्वज्ञ का केवलज्ञान गलत हो जाए तो यह भाव बदले, जो कि सर्वथा असक्य है । जगत, जगत में रहे, यदि जगत के कुछ जीवों को सर्वज्ञता की यह बात नहीं बैठती तो इससे क्या ? जो वस्तुस्वरूप सर्वज्ञदेव ने देखा है, वह कभी नहीं बदल सकता। जैसा सर्वज्ञदेव ने देखा है, वैसा ही होता है। जो इसमें शङ्का करता है, वह मिथ्यादृष्टि है। मैं निमित्त और संयोग में परिवर्तन कर सकता हूँ - ऐसा माननेवाला, सर्वज्ञ के ज्ञान में शङ्का - करता है और इसलिए वह प्रगटरूप से मिथ्यादृष्टि - अज्ञानी है । 14 अहो! इस ज्ञानस्वभाव को समझ लेने पर जगत के समस्त द्रव्यों के प्रति कितना उदासीनभाव हो जाता है ! शरीर का और पर का कर्तृत्व छूटकर ज्ञानस्वभाव की प्रतीति हो जाती है । इसमें अनन्त - वीर्य अपनी ओर कार्य करता है । कोई जीव अन्तरङ्ग में पर का कर्तृत्व मानता हो, पर में सुखबुद्धि हो और कहे कि जो होना है सो होगा - यह तो शुष्कता है; यह बात ऐसी नहीं है। जब जीव अनन्त परद्रव्यों से पृथक् होकर, मात्र स्वभाव में सन्तोष मानता है, तब यह बात यथार्थ बैठती है; इसकी स्वीकृति में तो सभी परपदार्थों से हटकर ज्ञान, ज्ञान में ही लगता है अर्थात् मात्र वीतरागभाव को ही करता है। जिसको ऐसी प्रतीति है कि नरेन्द्र, देवेन्द्र अथवा जिनेन्द्र, तीन काल और तीन लोक में एक परमाणु को बदलने में समर्थ नहीं है, वह ज्ञान की ओर सन्मुख हुआ है और उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त है, वह क्रमशः ज्ञान की दृढ़ता के बल से राग का नाश करके अल्पकाल में
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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