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वस्तुविज्ञानसार
मिथ्यादृष्टि जीव यह मानता है कि परसंयोग के कारण राग - द्वेष होते हैं; इसलिए वह संयोग को बदलना चाहता है; उसे वीतराग-शासन के प्रति श्रद्धा नहीं है और न उसे सर्वज्ञ के ज्ञान की श्रद्धा है। जो कुछ होता है, वह सब सर्वज्ञदेव के ज्ञान के अनुसार होता है । जिसे सर्वज्ञ की श्रद्धा हो, उसे यह निश्चय करना चाहिए कि जो कुछ सर्वज्ञदेव ने देखा है, उसी के अनुसार सबकुछ होता है और ऐसा होने से यह मान्यता भी दूर हो जाती है कि संयोग के कारण अपने में राग-द्वेष होते हैं और यह मान्यता भी दूर हो जाती है कि मैं संयोग को बदल सकता हूँ। जो इस सम्बन्ध में थोड़ा सा भी अन्यथा मानता है, तो समझना चाहिए कि उसे वीतराग सर्वज्ञ की श्रद्धा नहीं है।
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'जैसा सर्वज्ञ भगवान ने देखा है, वैसा ही होता है, इसमें किञ्चित् मात्र भी परिवर्तन नहीं होता' - ऐसी सर्वज्ञ की दृढ़ प्रतीति को नियतवाद नहीं कह सकते; यह तो सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा का पुरुषार्थवाद है । सम्यग्दर्शन के बिना यह बात नहीं जमती । जिसकी दृष्टि मात्र परपदार्थ पर ही है, उसे भ्रम से ऐसा लगता है कि यह तो नियतवाद है किन्तु यदि स्व-वस्तु की ओर से देखे तो इसमें ज्ञानस्वभाव की स्वाधीन तत्त्वदृष्टि का पुरुषार्थ भरा हुआ है ।
वस्तु का परिणमन सर्वज्ञ के ज्ञान के अनुसार क्रमबद्ध होता है ऐसा निश्चय करने पर, जीव समस्त परद्रव्यों से उदास हो जाता है और स्वद्रव्य के सन्मुख हो जाता है; उसी में सम्यक्त्वादि का पुरुषार्थ आ जाता है । इस पुरुषार्थ में मोक्ष के पाँचों समवाय समाविष्ट हो जाते हैं ।