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अज्ञानी को व्यवहार का सूक्ष्म....
- आत्मा ज्ञानस्वभावी, एक, शान्तस्वरूपी है - ऐसा विकल्प में लेकर भी, जब तक स्वभाव सन्मुख होकर अनुभव न करे, तब तक सम्यक्त्व नहीं होता। अन्तरङ्ग में यह बात जम जाए कि बहिर्मुख भाव, मैं नहीं हूँ, तो उसका वीर्य विकार से अलग होकर निश्चयस्वभाव में ढल जाता है और निश्चयस्वभाव में वीर्य ढलते ही व्यवहार का निषेध हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शनादि हो जाते हैं। __ अभव्य जीवों को तथा मिथ्यादृष्टि भव्य जीवों को स्वभाव का ख्याल आने पर भी स्वभाव की महिमा नहीं आती। ख्याल में आता है, इसका अर्थ यहाँ पर सम्यग्ज्ञान में आने की बात नहीं है किन्तु ज्ञानावरण के क्षयोपशम की प्रगटता में इस बात का ध्यान आता है। ग्यारह अङ्ग के ज्ञान में सब बात आ जाती है कि आत्मा का स्वभाव त्रिकाल है, राग क्षणिक है किन्तु अज्ञानी की रुचि का.बल शुभ की
ओर से नहीं हटता। बहुत गम्भीर स्वभाव की माहात्म्यदशा में बल को लगाना चाहिए, वह यह नहीं करता; इसलिए उसे व्यवहार का पक्ष रह जाता है।
यहाँ पर अभव्य की बात तो मात्र दृष्टान्त के रूप में कही है किन्तु सभी मिथ्यादृष्टि जीव कहीं न कहीं व्यवहार के पक्ष में अटक रहे हैं; इसीलिए उन्हें निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं होता। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को मानकर, वे क्या कहते हैं - यह ध्यान में भी लिया, बाह्य में साधु भी हुआ, किन्तु रुचि को विकार से हटाकर त्रिकाली -स्वभाव की ओर नहीं लगाता। वर्तमान पर्याय को विकार से हटाकर त्रैकालिक स्वभाव की ओर लगाये बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता; इसलिए सर्वज्ञ भगवान ने सदा निश्चय के आश्रय से व्यवहार का निषेध किया है।