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वस्तुविज्ञानसार .
ओर वीर्य का बल न हो, तब तक निश्चय का आश्रय नहीं होता और निश्चय के आश्रय के बिना व्यवहार का पक्ष नहीं छूटता।
व्यवहार का आश्रय तो, जिसकी कभी मुक्ति होनेवाली नहीं है। - ऐसा अभव्य जीव भी करता है। तात्पर्य यह है कि निश्चय के आश्रय से ही मुक्ति होती है; अत: निश्चयनय से व्यवहारनय निषेध करने योग्य ही है।
सच्चे देव-गुरु-शास्त्र क्या कहते हैं ? इसका विचार ज्ञान में आता है, तथा पञ्च महाव्रतादिक के विकल्परूप जो व्यवहार है, उसे भी ज्ञान जानता है, किन्तु जब तक उस रागरूप व्यवहार से निश्चयस्वभाव की अधिकता (पृथक्त्व) दृष्टि में नहीं आती, तब तक निश्चयस्वभाव में वीर्य का बल स्थिर नहीं होता और निश्चयस्वभाव के आश्रय बिना निश्चयसम्यक्त्व नहीं होता। निश्चयसम्यक्त्व के बिना व्यवहार का निषेध नहीं होता। इस प्रकार जीव को व्यवहार का सूक्ष्म पक्ष रह जाता है। ___'राग प्रत्येक अवस्था में बदलता जाता है और उस विकार के पीछे निर्विकार स्वभाव को धारण करनेवाला द्रव्य ध्रुव है,' इस प्रकार विकल्प के द्वारा जीव ध्यान में लेता है, किन्तु जब तक त्रैकालिक स्वभाव में वीर्य को लगाकर, अरागी निश्चयस्वभाव का बल नहीं आता, तब तक व्यवहार का निषेध नहीं होता और व्यवहार के निषेध के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता।
अज्ञानी को व्यवहार के पक्ष का सूक्ष्म अभिप्राय रह जाता है, वह केवलीगम्य है; वह छद्मस्थ को दृष्टिगोचर नहीं होता। वह अभिप्राय कैसे रह जाता है? - इस सम्बन्ध में यहाँ कथन चल रहा है।