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जिसके उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो रहा है। आत्मा के ज्ञान गुण का प्रतिबंधक अज्ञान है । जिसके उदय से यह जीव अज्ञानी हो रहा है तथा चारित्र गण को रोकनेवाला कषाय भाव है जिसके उदय से यह जीव चारित्र रहित अर्थात अचारित्री हो रहा है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने बताया है।
सम्यग्दृष्टि जीव के अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व के उदय से होने वाले राग, द्वेष और मोहभावनहीं होते।
आत्मा से अतिरिक्त किसी भी पर पदार्थ में "यह अच्छा है" इस प्रकार का विचार राग भाव है और यह द्वेष भाव है और इस प्रकार की उलझन में अपने आपको अटकाये रखना यह मोह भाव है एवं यह राग-द्वेष और मोह भाव जहाँ पर सर्वथा नहीं है उसी जीव को यहाँ इस अध्यात्म शास्त्र में सम्यग्दृष्टि माना है।
जहाँ पर सब पदार्थों को स्मरण मेंनलाकर केवल अपनी शुद्धात्मा का ही ध्यान किया जाता है उस परम समाधि अवस्था का नामहीशुद्ध नय है।
ज्ञान और दर्शन रूप उपयोगही आत्मा का स्वरूप है। भेदज्ञान से शुद्धात्मा जीवन की उपलब्धिहोती है।
ज्ञानी जीव :- क्रोधादि - भाव कर्म, ज्ञानावरणादि - द्रव्य कर्म और औदारिक - शरीरादि - नो कर्म, इस प्रकार तीनों प्रकार के कर्मों से रहित तथा अनन्त ज्ञानादि - गुण स्वरूप शुद्धात्मा को, निर्विकार सुख की अनुभूति ही लक्षण जिसका ऐसे भेद ज्ञान के द्वारा अर्थात ध्यान के द्वारा जो जानता है, अनुभव करता है वह ज्ञानीजीव कहलाता है। ____मैं तो एक हूँ, मेरा यहाँ कोई नहीं है, किसी भी प्रकार के संपर्क से दूर रहनेवाला हूँ, केवलं ज्ञान गुण का धारक हूँ, मुझे योगीलोगहीध्यान के बल से जान पहिचान सकते हैं और कोई नहीं, इसके सिवाय जितने भी संयोगज भाव है अर्थात शरीरादिक है वे मेरे से सर्वथा भिन्न हैं, इस प्रकार का चिंतवन
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