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________________ आत्मा का स्वरूप : ज्ञान में, दर्शन में और चारित्र में दृढ़ता से भावना करना | जब तक इस आत्मा के ज्ञज्ञनावारणादि द्रव्य कर्म और रागद्वेषादि भाव कर्म और शरीरादि नो कर्म में- मैं कर्म, नो कर्म में हैं और कर्म-नोकर्म मेरे है, ऐसी प्रतीति होती रहती है तब तक यह आत्मा . अप्रतिबुद्ध अर्थात अज्ञानी है। अजीव रूपदेहादिक में परिणत होने पर बंध और शुद्धजीव में परिणत होने पर मोक्ष होता है। निश्चय नय और व्यवहार नय इन दोनों में सापेक्षपना है। व्यवहार निश्चय का सहचर है। जो समयसार है वह तो सभी प्रकार केनयों के पक्षपात से रहित होता है, उस समयसार को यदि किसी दूसरे शब्द से कहा जा सकता है तो वास्तव में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान शब्द द्वारा कहा जा सकता है। अशुभ कर्म तोपापरूपहै, बुरा है और शुभकर्म पुण्य रूप है अच्छा है। ऐसा सर्व साधारण कहते हैं परन्तु परमार्थ दृष्टि से देखे तो जो कर्म इस जीव को कारागारात्मक शरीर रूप संसार में ही बनायें रखता है वह कर्म अच्छा कैसे हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं हो सकता है। जो भले प्रकार से अपने गुण और पर्यायों में रहता है वह समय कहलाता है अथवा संशयदिरहित ज्ञान जिसको होता है वह समय है। जो कोई ज्ञान स्वरूप आत्मा में स्थित नहीं हो रहा है और तप करता है तथा व्रतों को धारण करता है तो उसके व्रत और तपको सर्वज्ञ देव अज्ञान तप और अज्ञानव्रत कहते है। जीवादि (९ पदार्थों) का संशय - उभय कोटि ज्ञान, विमोह विपरीत, एक कोटिज्ञान, विभ्रम अनिश्चित ज्ञान, इन तीनों से रहित जो यथार्थ अधिगम होता है, निर्णय कर लिया जाता है,जान लिया जाता है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। आत्मा के सम्यक्त्वगुण को रोकने वाला मिथ्यात्व कर्म है 29
SR No.007137
Book TitleNischay Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharat Pavaiya
PublisherBharat Pavaiya
Publication Year2007
Total Pages32
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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