SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह जीव करता है। जो व्यक्ति भलाई और बुराई से दूर हटकर एकाग्रचित होता हुआ राजस और तामस वृत्ति इन दोनों का त्याग करके सात्विकता को प्राप्त हो जाता है, और संसार की दृश्यमान वस्तुओं में अब जिसकी कोई भी इच्छा न रहने से जिसने सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया है वहीजीव शान्त चित्तहो शुद्धात्मा का ध्यान कर सकता है जो कि संवर होने का अद्वितीय साधन है। चतुर्थ गुणस्थान वर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि जीव कम राग वाला होता है क्योंकि उसके मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी क्रोध,मान,माया और लोभजनित रागादिक नहीं होते है तथा ज्ञावक के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ जनितरागादिक नहीं होते है। ज्ञान गुणयाज्ञानभाव उसके दूसरे नाम इस प्रकार हैं: स्वरूपाचरण, स्वसंवेदन, आत्मानुभव, शुद्धोपयोग और शुद्ध नय। बाधा पैदा करने वाले ऐसे आगम प्रसिद्ध चारों पायों (मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, और शुभाशुभ रूपयोग भाव) को शुद्धात्मा की भावना में शंका रहित होकर स्वसंवेदन नाम वाले ज्ञानरूपखड़ग के द्वारा काट डालता है। यदि जिन मत का रहस्य प्राप्त करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों में से किसी को मत भूलो क्योंकि व्यवहार नय को छोड़ देने से अभीष्ट सिद्धि का मूल कारण जो तीर्थ है वह नष्ट हो जाता है और निश्चय नय को भुलादेने परसमुचित वस्तु तत्त्व ही नहीं रह पाता है। मिथ्यात्व सप्त व्यसन से भी बड़ा पाप है। वस्तु पर्याय अपेक्षा से तो क्षणिक है और द्रव्य अपेक्षा से नित्य है। शब्दादि रूपपंचेन्द्रियों के विषय में ज्ञानावरणादि - द्रव्यकर्मों में और औदारिकादि पांच शरीरों में दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों में से कुछ भी नहीं है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र 31
SR No.007137
Book TitleNischay Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharat Pavaiya
PublisherBharat Pavaiya
Publication Year2007
Total Pages32
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy