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देवतागण आते हैं, दीक्षाकल्याणक के समय भी वे आते हैं। देवगण, पालकी में तीर्थङ्कर को ले जाने लगते हैं। उसी समय देव और मानवों में यह विवाद होता है कि पहले पालकी कौन उठाये? इस विवाद में दोनों तरफ से अपने-अपने पक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। अन्त में तीर्थङ्कर के पिता से यह समाधान होता है कि जो तीर्थङ्कर के साथ दीक्षा लेगा, वही पालकी उठाने का प्रथम पात्र होगा।'
उस समय एक कारुणिक दृश्य भी उपस्थित होता है। देवता अपनी देवपर्याय के बदले में मनुष्यों से उनकी मनुष्यपर्याय थोड़ी देर के लिए माँगते हैं और मनुष्य किसी भी कीमत पर उसे स्वीकार नहीं करते; तब मनुष्यों को ही पालकी उठाने का प्रथम अवसर मिलता है क्योंकि मनुष्य ही संयम धारण के योग्य होता है; देव अपनी पर्यायगत अयोग्यता से संयम धारण के योग्य नहीं माने गये