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चिद्काय की आराधना/87 'परमात्म स्वरूपोऽहम्' हूँ चेतन निर्मल अभिराम। पर परिणति का अब क्या काम।। मैं हूँ परमात्म के समान।
अपने में पाऊँ विसराम।। मैं अरहन्त परमात्मा स्वरूप हूँ। मैं सिद्ध परमात्मा स्वरूप हूँ।
जो परमात्मा हैं, वह मैं हूँ, वही मैं हूँ, भ्रांति रहित होकर ऐसी भावना कर। मोक्ष का कारण कोई अन्य मंत्र-तंत्र नहीं है।
जिसप्रकार अर्हत भगवान घातिया कर्मों का क्षयकर सकल परमात्मा बन गये हैं तथा सिद्ध भगवान अष्टविध कर्मो का क्षय करके निकले परमात्मा बन गये हैं, उसीप्रकार अव्यक्तरूप से मेरा आत्मा भी परमात्मा स्वरूप है। __ हे आत्मन! तू अहँत स्वरूप है। जो अहँतों का स्वरूप है वही तेरा स्वरूप है। इसलिये तू भी भगवान की तरह ध्यान मुद्रा में बैठकर अपनी देहं प्रमाण दिव्य काया जो सिद्ध समान है उसी में अपने उपयोग को लीन करने का प्रतिदिन अभ्यास कर। इससे तू राग-द्वेष आदि विभाव परिणामों को शीघ्रता से छोड़ देगा। - हे मुक्ति के पथिक! प्रतिदिन यह भावना कर कि कब ऐसा अवसर आवे जब गृहस्थपना त्यागकर रत्नत्रय रूप मुनिधर्म अंगीकार कर निज स्वभाव साधन के द्वारा कर्मों का नाश कर सिद्ध पद प्राप्त करूँ।
बहिरात्मपना दुःखमय संसार में भ्रमण करने का कारण है, अतः त्यागने योग्य है। अन्तरात्मपना सुखमय मोक्ष में निवास का कारण है, अतः ग्रहण करने योग्य है। अन्तरात्मा बनना ही परमात्मा बनने का उपाय है।
जो जीव सर्व व्यवहार को छोड़कर निज चिद्काय में रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि जीव है और वह शीघ्र ही संसार से पार होकर परमात्मा हो जाता है।