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86/चिद्काय की आराधना
'शुद्धात्मानुभूति स्वरूपोऽहम्' । सिद्ध समान शुद्ध मम आतम, यही भावना मेरी रे। पर परिणति पर्याय हटाकर, करूँ प्राप्ति अब तेरी रे।। मै अमूर्त अतीन्द्रिय चेतन, शुद्ध निजातम केरी रे।
सिद्धालय में वास करूँ मैं, सिद्ध प्रभु की चेरी रे।। .- मैं अपने शुद्ध आत्मा की अनुभूति स्वरूप हूँ।
निज दिव्यकाय के अनुभवरूप रत्नत्रय की आराधना के द्वारा भूतकाल में सिद्ध हुए हैं, आज हो रहे हैं और आगे होंगे। निज दिव्यकाय के अनुभव रूप रत्नत्रय की आराधना करना ही मेरा स्वरूप है। शुद्धात्मानुभूति करने वाले सिद्धों का जो स्वरूप है, वही मेरा स्वरूप है। इसलिये मैं सतत उसी शुद्ध आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूँ।
हे भव्य! भगवान सिद्ध परमेष्ठी जिस प्रकार अपनी चिद्काय का अनुभव करते हैं, वैसे ही तुम भी अपनी चिद्काय का अनुभव करो। संसार समुद्र से पार मुक्ति धाम में पहुँचने का आत्मध्यान ही एक उपाय है। इसलिये अपनी चिद्काय का सतत स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अनुभव करो।
'शुद्धात्म संवित्ति स्वरूपोऽहम्' जो हूँ वह हूँ, मैं हूँ आतम, नहीं पर द्रव्यों से वासता। अपना चेतन अपने भीतर, रहता निज गुण सासता।। गुणस्थान आदि में देखा, कहीं नजर नहीं आवता।
अपने से ही परदा करता, अपने घर को भासता।। जिस प्रकार भगवान सिद्ध परमेष्ठी अपने शुद्ध आत्मा की संवित्ति स्वरूप हैं, उसी प्रकार स्वभाव से सर्व संसारी आत्मा भी आत्म संवित्ति स्वरूप हैं और काललब्धि आदि को पाकर साक्षात् शुद्धात्म संवित्ति रूप होकर सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।