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चिकाय की आराधना / 75
'सहजानन्द स्वरूपोऽहम्'
आनन्द सहजानन्द रूपा, एक आतंमराम है। दुःख नहीं वहाँ सुख नहीं, अरु पुण्य-पाप हराम है । । उसको रोज आस्वाद भैय्या, जो सहज अभिराम है।
माया, ममता से निराला, सहज सुख का धाम है | |
हे भव्य ! तेरा आत्मा स्वयं निश्चय नय से सहजानन्द स्वरूप है । उसको व्यक्त करने के लिए रत्नत्रय की भावना करो, परम समाधि की चाह करो तथा सकल अंतरंग एवं बाह्य परिग्रह के त्यागरूप दिगम्बर मुनि अवस्था प्राप्त करने की भावना करो, क्योंकि अंतरंग-बहिरंग परिग्रह के साथ तेरा सहजानन्द स्वरूपकभी व्यक्त नहीं हो सकता है।
जो आत्मा अपनी चिट्ठाय के ही श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप निश्चय रत्नत्रयरूप भावना के बल से बाह्य विषयों में मोह-ममता नहीं रखता है, वह शीघ्र अपने सहजानन्द को प्राप्त कर लेता है। आत्मा की सहज शुद्ध अवस्था वचनातीत है, जहाँ परद्रव्य का राग अथवा परद्रव्य संयोग का भी अभाव है, मात्र सहजानन्द है ।
हे भाई! प्रत्येक आत्मा में अव्यक्त रूप से सहजानन्द विद्यमान है। तुम्हारा जीवास्तिकाय भी उस सहजानन्द की स्वामी है, उस सहजानन्द को निज जीवास्तिकाय के ध्यान के द्वारा व्यक्त करने की आवश्यकता है। त्रिगुप्ति गुप्त परम समाधि निरत रहता हुआ मुनि उस सहजानन्द को प्रगट करता है।
भगवान कहते हैं कि प्राप्त देह में ही तेरी दिव्य देह का निवास है । तेरी दिव्य में एक सहजानन्द रूपी अमृत भरा हुआ है। ऐसा तू निश्चय कर और सहजानन्द रूपी अमृत का अनुभव करने के लिये सर्व विकल्पों को छोड़कर एक अपनी दिव्य देह का अनुभव कर। इससे सर्व कर्म नष्ट होंगे और तू सहजानन्द को प्राप्त करेगा। बाह्य प्रयत्नों से सहजानन्द का अनुभव होने वाला नहीं है।