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74/चिकाय की आराधना
'अनन्त शक्ति स्वरूपोऽहम्'
अचिंत्य शक्ति आतम में, सभी कार्य हो जाते सिद्ध । स्वयं देव जब बसा हृदय में, कौन कार्य जो हों अवरुद्ध || बाह्य परिग्रह से क्या मतलब, जब आतम हो केवल बुद्ध । पथिक अनन्त शक्ति को समझो, जो होना हो परम विशुद्ध ।।
सादि, अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से स्पर्श, रस, गंध और वर्ण के आधारभूत शुद्ध पुद्गल परमाणु के सदृश, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य से युक्त जो परमात्मा है, वह ही मैं हूँ ।
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मैं अनन्त क्षायिक ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति स्वरूप हूँ। मुक्ति के पथिक को इसप्रकार प्रतिदिन भावना करनी चाहिए।
हे आत्मन्! अन्तराय कर्म के आच्छादन से अनन्त शक्ति वर्तमान में प्रगट नहीं है। अपनी चिट्ठाय का अनुभव करने से अंतराय कर्म का क्षय होगा और तू प्रगट अपने को अनन्त शक्ति स्वरूप अनुभव करेगा।
'अचिंत्यशक्ति स्वयमेव देवः । '
हे भव्य! आत्मा स्वयं अनन्त शक्ति स्वरूप देव है। इसमें ऐसी शक्ति है जो छद्मस्थ के विचार में नहीं आ सकती है।
आनन्दमूर्ति यह आत्मा अनन्त शक्ति का धारक, वांछित कार्य की सिद्धि करने वाला आप ही देव है । इसलिये ज्ञानी को अन्य परिग्रह के सेवन करने से क्या साध्य है? कुछ भी नहीं । आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति हो जाने पर अन्तरंग एवं बहिरंग परिग्रह से ज्ञानी को कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
हे भव्य ! अशक्ति का नाश करने के लिये अनन्त शक्तिस्वरूप अपनी चिंकाय का सदा अनुभव कर ।