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60/चिद्काय की आराधना
'चैतन्यामरद्रुम स्वरूपोऽहम्' रत्नत्रय धरम का मैं कल्पवृक्ष। हूँ अमर शुद्ध चैतन्य न कोई अक्ष।। जो इष्ट वस्तु सबको अनुपम प्रदाता।
छाया उसी की गहता सब छोड़ नाता। मैं रत्नत्रय धर्ममयी शुद्ध चैतन्य अमर कल्पवृक्ष की छाया को प्राप्त होता हूँ, जो अविनाशी है, सतत भव्य आत्माओं की रक्षक है। बाह्य सर्व कल्पवृक्षों से जड़ पदार्थ माँगने का त्याग करता हूँ; क्योंकि मैं स्वयं अमर चैतन्य कल्पवृक्ष हूँ। फिर जड़ पदार्थ माँगना क्यों? जड़ पदार्थों में सुख नाम का गुण, धर्म नहीं है। इसलिये वे मुझे सुख प्रदान नहीं कर सकते हैं। उनका आश्रय करने पर जो विषय सुख अनुभव में आता है, वह भी मेरी चिदकाय के द्वारा ही उत्पन्न किया जाता है। चिद्काय के अभाव में विषयसुख रूप परिणति उत्पन्न नहीं हो सकती है। जो महिमा है वह सब चिद्काय की ही है। ____ भोगभूमि के समय कल्पवृक्ष होते हैं, जो भोगभूमि के जीवो को अपनेअपने मन की कल्पित वस्तुओं को देते हैं। वे कल्पवृक्ष पुण्यात्मा जीवो को अधिक से अधिक तीन पल्य तक मन की कल्पित वस्तुओं को देते हैं। ये कल्पवृक्ष जड़ हैं, पृथ्वीकाय हैं। परन्तु हे भव्य! तुम स्वयं शुद्ध चैतन्य अमर धर्म रूप कल्पवृक्ष हो। इस अमर कल्पवृक्ष को पुण्य की अपेक्षा नहीं है। यह कल्पवृक्ष अंतर्दृष्टि करने पर बिना मांगे ही तुम्हें अनुपम सुख देता है। .. मैं मुक्ति का राही समस्त कर्मे प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होने वाले शुद्ध अभेद रत्नत्रय धर्मरूप अमर कल्पवृक्ष की प्राप्ति का पुरुषार्थ करता हूँ, क्योंकि मैं निश्चय से तद्रूप हूँ। मेरा चिदानन्द धर्मरूप अमर कल्पवृक्ष बिना माँगे ही मुझे सदा मोक्षसुख प्रदान करने वाला है। , यह मनुष्य जन्म ही सर्वश्रेष्ठ जन्म है। इस मनुष्य जन्म में ही ध्यान कर अधिक से अधिक कर्मों को नष्ट कर देना चाहिए।