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चिद्काय की आराधना/59
___ 'चैतन्य रत्नाकर स्वरूपोऽहम्' रत्नाकर चैतन्य रतनत्रय निधि का है धनी। लगाओ इसमें तो डुबकी, मिल जाये निधि तेरी।। पथिक सुन लो अब तो, रतन इसमें अनंत अनंता।
लुटेरे लूटे ना बतावें, बतावें वीर भगवन्ता।। मोह के उदय से आच्छादित अनादिकालीन भ्रम बुद्धि से आज तक मैंने सोना, चाँदी, हीरा, पन्ना आदि पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न माना, उनको प्राप्त करने के लिये मैं रात-दिन परिश्रम करता रहा। उनसे पुद्गल शरीर को सजाया। ये पत्थर के टुकड़े सुख गुण से सर्वथा रहित होने से मुझे सुख प्रदान नहीं कर सकते हैं। सातावेदनीय का उदय होने पर इन्द्रियों के माध्यम से ये मुझे इन्द्रिय सुख प्रदान करते हैं, जो सुखाभास है, दुःख है। अंतर्दृष्टि कर निज चिद्काय का अपूर्व सुख प्राप्त करने से अब मुझे अचल विश्वास हो गया है कि ये पत्थर के टुकड़े मेरी शाश्वत निधि को ठगने वाले हैं। इसलिये इनमें मेरे राग का अभाव हो गया है। मैं अब अपने आनन्द समुद्र चिद्काय में रहने वाले गुण रूपी शाश्वत रत्नों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता हूँ और बाह्य क्षणिक पुद्गल पिण्डों का त्याग करता हूँ।
हे भव्य! चैतन्य रत्नाकर निज चिद्काय में डुबकी लगाओ। देखो! तुम्हारे गुणों का खजाना तुम्हारे पास है, तुम स्वयं ही तद्रूप हो। तुम त्रिलोकाधिपति, त्रिलोकेश्वर हो। ____ हम अपने भगवान को, अपने स्वरूप को, अपने घर को छोड़कर बाहर रहें, पर घर में रहे, यह अपराध है बड़े शर्म की बात है, कुशील है।
प्रभु! तेरी चिद्काया में, तेरे घर में, तेरी चीज में क्या कमी है जो तू बाहर में परद्रव्यों में, पर घर में ही माथा मार रहा है। आनन्दमयी निज चिद्काय है जो अपना घर है उसको छोड़कर बाहर फिरना तो अज्ञान है, मोह है, पागलपन है।