________________
46/चिद्काय की आराधना
'कर्णेन्द्रिय विषय व्यापार रहितोऽहम्' जिसप्रकार अरिहंत-सिद्ध परमात्मा कर्णेन्द्रिय के व्यापार से रहित हैं, उसीप्रकार निश्चय से मैं कर्णेन्द्रिय के विषय व्यापार से रहित हूँ। ___ कर्णेन्द्रिय के विषय शब्द में सुख नहीं है। इसलिये उसको विषय करने वाले जीव को भी सुख नहीं है। निज चिद्काय में सुख है। इसलिये उसको विषय करने वाले जीव को भी सुख है। । हे भव्य! तुम बाहरी आवाज को ही अनन्त काल से सुनते आ रहे हो। सुनना है तो जिन वचनों को सुनो और फिर जिन वचनों को भी सुनना बंद कर आत्मा की सच्ची आवाज सुनो। अंतर में चिद्काय पुकार रही है। उसकी मधुरिम कर्मक्षयकारिणी आनन्ददायिनी आवाज को सुनो, एक बार ध्यान से सुनो। सदा अपने आत्म प्रदेशों का अनुभव करो।
इन्द्रिय व्यापार रूप कोलाहल से तुम्हें क्या प्रयोजन है? जो पुरुष इन्द्रिय व्यापार सहित है, वह आप्त नहीं हो सकता है। इन्द्रिय व्यापार ही संसार परिभ्रमण का मुख्य हेतु है। इन्द्रियाँ आत्मा की ग्राहक नहीं हैं। वे आत्मा से विमुख रहती हैं, जिससे आत्मा दुःखरूप परिणमन करता है। इसलिये पुरुषार्थ से आत्मिक आनन्द को प्राप्त करो।
__ हे भाई! परद्रव्यों का लक्ष्य कर-करके तू अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहा है। अब तू अपने अन्तर में अपने स्वरूप की ओर, अपनी चिद्काय की ओर दृष्टि कर। भीतर अपने ही प्रदेशों को, एक-एक अंग-उपांग . को देख और उन्हीं में लीन होने का पुरुषार्थ कर। ..
___ कर्ण इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लये नेत्र बन्द कर अपने उपयोग को कर्ण इन्द्रिय पर लगायें। उपयोग को अपनी चिद्काय के सन्मुख करने से इन्द्रियों का व्यापार सहज ही रुक जाता है और राग का प्रसार रुक कर सहज आत्मस्वरूप की उत्पत्ति होती है।