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चिद्काय की आराधना/45
'चक्षुरिन्द्रिय विषय व्यापार रहितोऽहम्' । ज्ञानी ऐसा विचार करता है कि मैं चक्षु इन्द्रिय के विषय- काला, नीला, पीला, लाल, सफेद इनके व्यापार से रहित हूँ। __ हे भाई! जिसे बाहर देख रहे हो वह जड़ है, उसमें तुम्हारा सुख नहीं है। निज चिद्काय में तुम्हारा सुख है। उसको अंतर्दृष्टि कर निहारो।
क्षुद्र मच्छर भी आँखों से देखते हैं। मनुष्य होकर भी आँखों से देखे तो मच्छर और मनुष्य में कोई अंतर नहीं रहता। मनुष्य होने की श्रेष्ठता स्वसंवेदन के पुरुषार्थ द्वारा आँखों से नहीं देखने में ही है। ___संज्ञी जीव सबसे अधिक चक्षु इन्द्रिय का व्यापार करते हैं। इसलिये चक्षु इन्द्रियजय को इन्द्रियजय कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। रागी जीवो के नेत्र खुले रहते हैं और वीतरागी जीवो के बन्द। ___ हे भाई! एकत्व निश्चय को प्राप्त आत्मा ही सर्वत्र लोक में सुन्दर है। संसार के सुन्दरतम पदार्थ तुम स्वयं हो। जिसका कोई रूप नहीं है, ऐसे अमूर्तिक हो। अपने सुन्दर रूप को अन्दर टटोलो, खोजो, जरूर दर्शन पाओगे, पा गये तो तृप्त हो जाओगे।
जिसे बाहर देख रहे हो वह नश्वर है, जड़ है। जो देखने योग्य है, वह तुम्हारे अन्दर ही छुपा है। पाँव से मस्तक तक विराजमान तुम्हारी चिद्काय ही देखने योग्य है। यह बाहर के नेत्रों से दिखाई नहीं देती है। यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अनुभव में आती है, किन्तु ज्ञेयों में लुब्ध रहने के कारण प्रतीति में नहीं आ रही है।
नेत्र इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिये नेत्र बन्द कर अपने उपयोग को नेत्र इन्द्रिय पर लगायें। हे भव्य! अपनी शाश्वत चैतन्य काया की ओर दृष्टि करो। अपने को अपने में अपने से निहारो। बाह्य पदार्थो का लक्ष्य छोड़कर अपनी दिव्यकाय को देख।