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चिद्काय की आराधना/41 'पंचेन्द्रिय विषय व्यापार रहितोऽहम्' कमला चलत न पैंड जाय, मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सुख को रोएँ, पिता पुत्र दारा।। ज्यों मेले में पंथी जन, मिलि नेह धरे फिरते। त्यों तरुवर पर रैन बसेरा, पंछी आ करते।। कोस कोई दो कोस कोइ उड़ फिर, थक-थक हारे।
जाये अकेला हंस संग़ में, कोई न पर मारे।। मैं अनादि काल से बाह्य पदार्थों को ही अपने मानता रहा। स्पर्शन इन्द्रिय ने मुझे काम क्रीड़ा में लगा दिया। रसना इन्द्रिय ने मुझे स्वादिष्ट भोजन करने का लोलुपी बना दिया। घ्राण इन्द्रिय ने मुझे सुगन्धित वस्तुओं गुलाब, चम्पा, चमेली के फूल, इत्र, चन्दन, कपूर आदि के सूंघने में फँसाये रखा। नेत्र इन्द्रिय ने मुझे मनोहर सुन्दर रंगीन पदार्थों के देखने में लगाया और कर्ण इन्द्रिय ने रसीले-सुरीले गाने के शब्दों में उलझा दिया। मन नोइन्द्रिय है। इसको पाकर निरन्तर परद्रव्यों के सम्बन्ध में विचार किया। मैं इन पाँचों इन्द्रियों और मन के विषय व्यापार में रातदिन इतना मस्त रहा कि अपने आत्मा के स्वरूप की ओर कभी लक्ष्य नहीं किया। इसप्रकार मैंने एक समय भी अपने उपयोग को अपनी दिव्य काया में नहीं
लगाया।
हे प्रभु! तू अपनी दिव्य काया की प्रभुता को पहिचान। अन्तर में अनुभवगोचर तेरी दिव्य काया स्वभाव से स्वतंत्र है, परिपूर्ण है, वीतराग है, सिद्ध है; उसका
आश्रय करने से स्वतंत्र, परिपूर्ण, वीतराग, सिद्ध पर्याय प्रगट होती है; किन्तु तुझे इसकी खबर नहीं है, इसलिये तुझे शांति नहीं मिल रही है।
इन्द्रियों और मन को वश में लेकर निज चिद्काय का सतत ध्यान करो। इससे ही शांति मिलने वाली नहीं है। पंचेन्द्रियों का विषय व्यापार बंद करने के लिये नेत्रों को बंद कर अपने उपयोग को क्रमशः अपनी पांचों इन्द्रियों पर लगाओ।