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40/चिद्काय की आराधना
_ 'लोभ कषाय रहितोऽहम्' एक होकर दस होत, दस होकर सौ की इच्छा है। सौ होकर भी सन्तोष नहीं, अब सहस्र होय तो अच्छा है।। यों ही इच्छा करते-करते वह लाखों की हद पर पहुँचा है। तो भी इच्छा पूरी नहीं होती, यह ऐसी डायन इच्छा है।।
हे भव्य! श्मशान में कितने ही मुर्दे ले जाओ उसका पेट नहीं भरता; अग्नि में कितना ही ईन्धन डालो वह तृप्त नहीं होती; सागर में कितनी भी नदियाँ मिल जायें वह तृप्त नहीं होता; पेट में कितना ही भोजन डालो, वह खाली का खाली रहता है, ठीक उसीप्रकार तुम्हारे साथ अनादि काल से तृष्णा नागिन लगी हुई अन्तर में विष का संचार कर रही है। एक की पूर्ति करो, दूसरी तैयार, दूसरी की । पूर्ति करो, तीसरी तैयार। अनन्त आकाश का अन्त भले ही आ जाये पर इच्छातृष्णा का अन्त नहीं होता। परमार्थ से तुम्हारा आत्मा लोभ परिणति से रहित है।
हे भाई! सच्चा शाश्वत धन कौन सा है? तुम्हारे असंख्य प्रदेश एवं अनन्त गुण ही तुम्हारा शाश्वत धन है। तुम अनन्त सुख, शांति, संतोष के भंडार हो। अपनी अपनी चिकायारूपी भगवान आत्मा को ध्यानरूपी पुरुषार्थ के बल से प्राप्त करो। उसी की प्राप्ति का लोभ करो। शेष सब माया जाल है, उसका त्याग करो। ___ धैर्य पिता, क्षमा माता, शांति गृहिणी, सत्य पुत्र, दया बहिन, संयम भ्राता; इन उत्तम गुणों का लोभ करो। स्वार्थ के परिवार में तुम्हारा लोभ उचित नहीं। जो सदा साथ रहने वाला है, ऐसे आत्म वैभव की ओर दृष्टिपात क़रो। तुम स्वयं असली खजाने के स्वामी हो। तुम्हारा अनन्त वैभवरूप परमात्मा तुम्हें प्राप्त करने के लिये तरस रहा है। तुम कहाँ उलझे हो? लोभ छोड़ो और सन्तोष धारण करो।
हे भाई! अपनी चिद्काय का आश्रय कर लोभ कषाय का अभाव करो।