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चिकाय की आराधना / 31 परमेष्ठी भी यही करते हैं । निज जीवास्तिकाय के आश्रय से निज जीवास्तिकाय सुख रूप परिणमन करती है, जिससे हमें सुख का अनुभव होता है।
निज जीवास्तिकाय भले ही कर्मों का बन्धन होने के कारण अशुद्ध पर्याय सहित हो, वह स्वद्रव्य होने से ग्रहण करने के लिए शुचि है, शुद्ध है; उसका ध्यान करने से पर्याय में शुद्धता प्रकट होती है। परद्रव्य भले ही पर्याय में शुद्ध हों, वे परद्रव्य होने के कारण ग्रहण करने के लिए अशुचि हैं, अशुद्ध हैं, हेय हैं; उनका लक्ष्य करने से पर्याय में अशुद्धता प्रकट होती है। अनन्तगुण सम्पन्न हमारी चिद्देह स्वसंवेद्य है, वही हमारी निधि है, चिद्देह के अतिरिक्त बाहर हमारा कुछ भी नहीं है। इसलिए सुखार्थी जीव को अपने उपयोग का सारा श्रम अपनी चिद्देह के प्रति ही करना चाहिए। हमारा अभ्यंतर चिकाय ही हमारी संपत्ति है । इसीलिये हे भव्य ! अपने उपयोग का सारा श्रम उसी के प्रति करो।
यह राग - आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये । चिर भजे विषय कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये ।।
यह राग रूपी अग्नि अनादि काल से निरन्तर संसारी जीवों को जला रही है, दुःखी कर रही है। इसलिये जीवों को निश्चय रत्नत्रय रूपी अमृत का पान करना चाहिए, जिससे राग-द्वेष- मोह-अज्ञान का नाश हो । यह जीव अनादि अज्ञान से विषय - कषायों का सेवन कर रहा है। अब उसका त्याग करके निज जीवास्तिकाय का सेवन करना चाहिए, निज जीवास्तिकाय में ही सदा विहार करना चाहिए। निज जीवास्तिकाय और उसका सुख पैर के अँगूठे से लेकर मस्तक पर्यन्त ही है। परन्तु जो लोग बाह्य पदार्थों में अपना उपयोग लगाते हैं, उनको निज जीवास्तिकाय और परमार्थ सुख का अनुभव नहीं होता, जिससे वे दुःख का ही अनुभव करते
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हैं।
अपने उपयोग को निज सुखद जीवास्तिकाय में नहीं लगाकर परद्रव्यों में लगाने से मोहकर्म का उदय होकर रागादि परिणाम होते हैं और कर्मबन्ध होता है । अपने उपयोग को निज जीवास्तिकाय में लगाने से ही कर्मों का संवर, निर्जरा