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30/चिद्काय की आराधना
और अविनाशी अनन्त आनन्द की प्राप्ति होती है और फिर जन्म-मरण नहीं होता। इसलिए मनुष्य भव को विषयों में नहीं गंवाना चाहिए।
मुख्योपचार दु भेद यों बड़भागी रत्नत्रय धरें।
अरु धरेंगे ते शिव लहैं तिन सुयश-जल-जगमल हरैं ।। जो पुरुषार्थी जीव सर्वज्ञ-वीतराग कथित निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय का स्वरूप जानकर धारण करते हैं तथा करेंगे, वे जीव पूर्ण पवित्रता रूप मोक्ष को प्राप्त होते हैं और होंगे। गुणस्थान के प्रमाण में शुभराग आता है, वह व्यवहार रत्नत्रय का स्वरूप जानना चाहिए और उसे निश्चय से उपादेय नहीं मानना चाहिए। ___ पर द्रव्यों का लक्ष्य मोह कर्म के उदय और ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमादि के आश्रित होने से पराश्रित है, औदयिक है। हम स्वानुभव नहीं करके परद्रव्यों को जानें और अन्य जीवों को परद्रव्य जानने का उपदेश करें, यह योग्य नहीं है। निज आत्मप्रदेशों का दर्शन, अनुभव, संवेदन, ध्यान स्वाश्रित है। इसलिए हमें निज आत्मप्रदेशों के दर्शन, अनुभव, संवेदन, ध्यान का पुरुषार्थ करना चाहिए। निज जीवास्तिकाय जो स्वसंवेदनगोचर है, वही सुखद है। वही स्वसंवेदन करने पर हमें सुख देती है।
इमि जानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरौ। जबलो न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ।। यह जानकर रोग या वृद्धावस्था आवे उससे पूर्व ही प्रमाद छोड़कर आत्मा का हित कर लेना चाहिए। .. परमार्थ सुख की प्राप्ति निजं जीवास्तिकाय के ध्यान से ही होती है; क्योंकि निज जीवास्तिकाय सुखस्वभावी होने से सुख ही है, मात्र व्यवहार से गुणगुणीरूप भेद है। निश्चय से सुख और जीवास्तिकाय में कोई भेद नहीं है, इसलिये निज जीवास्तिकाय का अनुभव करना ही सुख का अनुभव करना है। सुखार्थी जीव को निज जीवास्तिकाय का ही सतत अनुभव करना चाहिए, पंच