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22/चिकाय की आराधना
- परमार्थ से निज जीवास्तिकाय ही शिवस्वरूप है, मोक्षस्वरूप है। जिनको मोक्ष की कामना हो, उनको निज जीवास्तिकाय का सतत दर्शन अनुभव, संवेदन, ध्यान करना चाहिए।
हे भाई! धर्म की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है। अहो ! सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज है। हमने अतीन्द्रिय आनन्द का ध्रुवदल शुद्ध चैतन्य प्रभु की ओर दृष्टि करने का समय नहीं निकाला और सारी जिन्दगी इन्द्रियों के विषय भोगों में ही गँवा दी।
सम्यग्दर्शन अन्तर्दृष्टि का अभ्यास करने से होता है। अपनी अभ्यंतर काय में, अपनी ही दिव्य देह में उपयोग को जोड़ने का नाम ही अन्तर्दृष्टि है, ध्यान है। भगवान आत्मा सर्वत्र देह में विराजमान है। ध्यान मुद्रा में बैठकर अपने ही प्रदेशों को देखने का, अनुभव करने का नाम ही अनुभूति है, सम्यग्दर्शन है, सम्यक्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है। इसलिए बहिर्दृष्टि छोड़कर अन्तर्दृष्टि करने का अभ्यास करो ।
जिस प्रकार सिद्धालय में सिद्ध भगवन्त विराज रहे हैं, वैसे ही इस देह रूपी देवालय में, कारण सिद्ध भगवान विराज रहे हैं। कारण सिद्ध प्रभु विराजमान रहते हुए भी हमारी यह दशा क्या हो रही है? हमारा उपयोग बाहर जाने से हमारे सिद्ध भगवान का अपमान होता है, हम आत्मघाती होते हैं; इसलिए हमें संसाररूप इतनी बड़ी सजा मिल रही है।
अगर दुःख से छूटना चाहते हो तो ध्यान मुद्रा में भगवान की तरह बैठ जाओ और अपनी ही दिव्यकाया जो भगवान स्वरूप है, उसमें अपने उपयोग को . जोड़ने का अभ्यास करो तो शीघ्र ही सिद्ध भगवान प्रगट रूप से हो जाओगे ।
अध्यात्म की ये बातें बाह्य प्रवृत्ति के रसिक जीवों को कठोर लगती हैं। जिसे अन्तरंग में बाह्य विषयों की रुचि छूट गई है और पूर्णानन्द प्रभु भगवान आत्मा की दृष्टि हुई है, उसको धर्मी कहते हैं।