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चिद्काय की आराधना/21 उक्त गाथाओं में आत्मदर्शन, आत्मलीनता को ही मुक्ति प्राप्त करने का एक मात्र उपाय बताया गया है। आज तक जितने भी जीव सिद्ध हुए हैं, वे सभी आत्मदर्शन से ही हुए हैं और जिन जीवों को मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई है, वह आत्मदर्शन के अभाव से ही नहीं हुई है। गृहस्थ हो या मुनि हो आत्मा में वास करने वालों को अति शीघ्र ही परम सुख की प्राप्ति होती है।
यदि निज भगवान आत्मा की खोज करनी है तो देहदेवल में करो, अन्यत्र आत्मा मिलने वाला नहीं है।
देहदेवल में विराजमान आनन्द स्वभावी निज भगवान आत्मा का ध्यान करना ही धर्म है। निज भगवान आत्मा का ध्यान किये बिना कितना ही तपत्याग करो, कितना ही व्रत, शील, संयम धारण करो, आत्मा का लाभ होने वाला नहीं है। यदि आत्मकल्याण करना है तो अपनी पूरी शक्ति निज भगवान आत्मा का ध्यान करने में ही लगाओ, अन्यत्र उपयोग लगाना कार्यकारी नहीं है।
निज चिद्काय की आराधना पर बल देने का कारण यह है कि यही एक मात्र मुक्ति का मार्ग है। इस जगत में ऐसे पुरुष बहुत विरल हैं जो निज चिद्काय का ध्यान करते हैं।
अध्यात्म ग्रन्थों में निज चिद्काय की आराधना पर सर्वाधिक वजन दिया जाता है। साथ ही पुण्य को पाप के समान भी बताया जाता है। समयसार ग्रन्थ में एक अधिकार पुण्य पाप की एकता के लिए लिखा गया है। प्रवचनसारादि अन्य अध्यात्म ग्रन्थों में भी पुण्य को पाप के समान बताया गया है।
आध्यात्मिक दृष्टि से जिस प्रकार पुण्य एवं पाप में अन्तर नहीं है, उसीप्रकार आत्मा और परमात्मा में भी कोई अन्तर नहीं है।
अनादि से जीव को कर्म का बन्धन होने के कारण उसकी पर्याय में नाना प्रकार का उत्पात मचा हुआ है। अनादि मोह कर्म के उदय से बहिर्मुख परिणमन करने के कारण वह दुःखी है। कभी महान भाग्योदय से वह संज्ञी पंचेन्द्रिय होकर निज जीवास्तिकाय के ध्यान रूप मोक्ष का पुरुषार्थ कर मोक्षरूप अविनाशी परमानन्द दशा को प्राप्त करता है।