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चिद्काय की आराधना/15
मैं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञान दृग् हूँ यथार्थ से।
कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणु मात्र भी नहीं अरे।। दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणत आत्मा यह जानता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, परद्रव्य किंचित् मात्र भी अर्थात् परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, यह निश्चय है।
अनुभवी जीव ही यह जानते हैं कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ सदा अरूपी हूँ। जो जीव ऐसा अनुभव करता है उस जीव ने प्रसन्न चित्त से भगवान आत्मा की बात सुनी है। वह नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है।
तत्त्वानुशासन में कहा है
'जो कोई अपने आत्मा का अनुभव करता हुआ परम एकाग्र भाव को प्राप्त कर लेता है, वह वचन अगोचर स्वाधीन सहज आनन्द को पाता है।'
बाह्य पदार्थों में आत्मबुद्धि रखने वाला बहिरात्मा सम्पूर्ण शास्त्रों को जान लेने पर भी मुक्त नहीं होता और निज चिद्कोय का अनुभव करने वाला अन्तरात्मा उन्मत्त हुआ और सोता हुआ भी मुक्त हो जाता है।
सम्यग्दर्शन गृहस्थों के भी होता है। वहाँ पर सराग देखने में आता है। वीतराग स्वसंवेदन मुनियों को ही होता है।
योगसार में कहा है
'गृहस्थ हो या मुनि, जो अपनी चिद्काय में रमण करेगा, वह तुरंत मोक्ष सुख पावेगा, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। जो कोई अपनी चैतन्य काया का, शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं, वे ही पुरुष धन्य हैं।' _ निश्चय से इन्द्रियगोचर शरीर से मैं भिन्न हूँ। यह इन्द्रियगोचर शरीर यहाँही रह जाएगा और मेरा स्वसंवेदनगोचर चिद्शरीर मेरे साथ जायेगा। जब इन्द्रियगोचर शरीर भी मेरे साथ जाने वाला नहीं है, तब स्त्री, पुत्र, धन आदि परिवार के साथ