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14/चिकाय की आराधना
किये बहुत उपवास कठिन तप, करि-करि कृशतन कीना है। किन्तु निजातम को जाने बिन, अंधे की ज्यों सीना है ।।
समयसार कलश में कहा है
'जो व्यवहार क्रियाकाण्ड में ही मग्न हैं, वे मानव परमार्थ स्वरूप शुद्धात्मा का अनुभव नहीं कर सकते। जिनको चावलों की भूसी में चावलों का ज्ञान है, वे तुषो को ही पायेंगे, उनके हाथ में कभी चावल नहीं आ सकते हैं। व्यवहार धर्म केवल बाह्य सहकारी है। आत्मानुभव ही परमार्थ धर्म है। जो अपनी ही चैतन्य काया का अनुभव करते हैं, वे अपनी आत्मा को शुद्धात्मा को पाते हैं । '
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हे भाई! निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मोहकर्म के उदय से संसार में भ्रमण करता है। इसलिए रत्नत्रय को प्राप्त करने का उपदेश जिनदेव ने दिया है।
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।।
धर्म के ईश्वर तीर्थंकर देव कहते हैं - 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र ही धर्म है, आत्मस्वभाव है और इसके विपरीत संसार दुःखों को बढ़ाने वाला मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अधर्म है । '
निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता धर्म है; व्यवहार रत्नत्रय धर्म का सहकारी है।
आत्मा को प्रथम द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों द्वारा यथार्थतया जानकर पर्याय पर से लक्ष्य हटाकर अपने त्रिकाली सामान्य चैतन्य स्वभाव, निज दिव्यकाय जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है, उसकी ओर दृष्टि करने से और उपयोग को उसमें लीन करने से निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है । समयसार गाथा 38 में रत्नत्रय प्राप्त करने का उपाय बताते हैं
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