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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/८८
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बीता काल अनन्त आज तक जो अनादि कहलाता है। धर्म ध्यान का मिला न अवसर चेतन चेत न पाता है। काल नहीं बाधक स्वध्यान में मास पक्ष दिन रंच नहीं। जब जागे हम तभी सबेरा फिर हो पाप प्रपंच नहीं॥ वर्षों की साधना व्यर्थ हो जाती यदि न भूल हो दूर। भूल दूर होते ही होती सकल साधना शिव सुखपूर ॥ अनगिन तीर्थयात्रा करके भी नहीं सफल हो पाया श्रम। आत्मतीर्थ की यात्रा में हम अबतक हुए नहीं सक्षम ॥ अब ऐसा कुछ करें कि जिससे सम्यग्दर्शन मिल जाए। अष्टकर्म सम्पूर्ण जीत लें ज्ञानाम्बुज उर खिल जाए।
(गीत) शुद्ध पर्याय प्रकट करने का ही यत्न करो। जितने गुण हैं प्रकट करने का ही प्रयत्न करो॥ ध्रुव त्रिकाली का लक्ष्य लेके आगे बढ़ जाओ। विभावी भाव राग-द्वेष के सयत्न हरो॥ घातिया घातकी की चाल में न आना तुम। इनको क्षय करके फिर अघातिया चारों ही हरो॥ मिला है मुक्ति-मार्ग बढ़ते चलो हे चेतन । मुक्ति-पथ पार करके सुख सहज निष्पन्न करो॥ शुद्ध परिणाम तुम्हें अपने बल से लाना है। पूर्ण सिद्धत्व हेतु जो बने यह यत्न करो॥
(दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, पाऊँ सम्यग्ज्ञान ।
अष्टकर्म सब नाशकर, पाऊँ पद नर्वाण ॥ ॐ ह्रीं सर्वकर्मप्रकृतिसत्त्वविरहितानन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुख-अव्याबाधत्वअवगाहनत्व-सूक्ष्मत्व-अगुरुलघुत्वाद्यनन्तगुणवैभवसमृद्धश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो ते महायँ निर्वपामीति स्वाहा।