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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ८९
महा जयमाला
( गीत )
रंग लाओ तो ज्ञान का ही रंग लाओ तुम । दर्शनी आत्म बना आनन्द बहुत पाओ तुम ॥ अपनी परिणति का ही शृंगार तुम करते रहना । शुद्ध अनुभव के रस से नित्य ही नहाओ तुम ॥ मैल धुल जाएगा कषायों का धीरे-धीरे । पूर्ण सिद्धत्व गुण से निज को ही सजाओ तुम ॥ घातिया या अघातिया की रज न रह पाए । बीन आनन्द प्रदाता ही नित बजाओ तुम ॥ मार्ग में यदि मिलें कंटक तो तुम कुचल देना । बिना रुके ही अपने मुक्ति भवन जाओ तुम ॥
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(छंद - ताटंक) दिव्यध्वनि अमृतवाणी का लाभ सर्व दुखनाशक है । स्वपर - प्रकाशक परमध्यानमय प्रतिक्षण मंगलदायक है | जो भयभीत कर्म से होते वे ही कर्म नाशते हैं । जो न कर्म से भय खाते हैं वे ना कर्म नाशते हैं ।। इच्छाओं के भँवरजाल में फँसा हुआ प्राणी दुखिया । पग-पग पर पीड़ा पाता है कभी नहीं होता सुखिया ।। बहिर्मुखी बनकर जो रहता कभी नहीं सुख पाता है । अन्तर्मुखी जीव जो होता वही आत्मसुख पाता है । जिसे न कोई इच्छा होती इच्छा-विजयी वह सम्राट । जिनको इच्छाएँ होती हैं उनको होता कष्ट विराट । इच्छाओं का अन्त नहीं है वे आकाश समान अनन्त । जो इच्छाएँ जय करते हैं वे ही पाते सौख्य अनन्त ॥