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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/८७ अन्तिम महार्घ्य (छंद - सरसी) मुझको भवदुख देते आए अष्टकर्म विकराल । कभी न इसका अन्त कर सका फँसकर माया जाल॥ निज की तो अनुभूत न भायी तो कैसे सुख पाता। किया न परिचय शुद्धात्मा से तो कैसे दुख जाता॥ अवसर पाया समय मिला बेला आयी दुख-क्षय की। ऋतु संयम की उत्तम पायी अष्टकर्म के जय की॥ किन्तु न मैंने अबतक भी कुछ लाभ उठाया स्वामी। भव के दल-दल में ही फँसकर समय गँवाया नामी॥ अब पलभर भी पर परिणति के संग नहीं जाऊँगा। निज परिणति को ससम्मान निज अन्तर में लाऊँगा। अष्टकर्म रज क्षय कर दूंगा ज्ञानभाव से स्वामी। निज पुरुषार्थ जगा पाऊँगा शिवसुख अन्तर्यामी ।।. (छंद - ताटंक) रवि को रवि का दिव्य तेज पा अपना आत्मतेज परखें। सोम चन्द्र की विमल ज्योति पा अपना ज्ञानरूप निरखें। मंगल सर्वोत्तम मंगल है अपना आत्मदेव मंगल । बुध को बुद्धि विमलकर अपनी शिवसुख पाएँ परमोज्ज्वल ॥ गुरु को गुरु की शरण प्राप्त कर मुक्तिमार्ग पर हम आएँ। सतत शुक्र को धर्म श्रवण कर भव-भावों पर जय पाएँ। शनि को उर में धरें हर्ष से संयम की दृढ़ नींव महान। सातों वार सतत निज चिन्तन करें आत्मा का ही ध्यान॥ उत्सर्पिणी काल में उत्तम धर्म ध्यान ही उर भाए। अवसर्पिणी काल हो तो भी मन न हमारा अकुलाए॥
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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